SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/९/११३ १५७ वहाँ आई । आकर असुभ पुद्गलों को दूर किया और शुभ पुद्गलों का प्रक्षेपण किया और फिर उनके साथ विपुल कामभोगों का सेवन करने लगी । प्रतिदिन उनके लिए अमृत जैसे मधुर फल लाने लगी । तत्पश्चात् रत्नद्वीप की उस देवी को शक्रेन्द्र के वचन-से सुस्थित नामक लवणसमुद्र के अधिपति देव ने कहा-'तुम्हें इक्कीस बार लवणसमुद्र का चक्कर काटना है। वह इसलिए कि वहाँ जो भी तृण, पत्ता, काष्ठ, कचरा, अशुचि सरी-गली वस्तु या दुर्गन्धित वस्तु आदि गन्दी चीज हो, वह सब इक्कीस बार हिला-हिला कर, समुद्र से निकाल कर एक तरफ डाल देना।' ऐसा कह कर उस देवी को समुद्र की सफाई के कार्य में नियुक्त किया । तत्पश्चात् उस रत्नद्वीप की देवी ने उन माकन्दीपुत्रों से कहा-हे देवानुपियो ! मैं शक्रेन्द्र के वचनादेश से, सुस्थित नामक लवणसमुद्र के अधिपति देव द्वारा यावत् नियुक्त की गई हूं । सो हे देवानुप्रियो ! मैं जब तक लवणसमुद्र में से यावत् कचरा आदि दूर करने जाऊँ, तब तक तुम इसी उत्तम प्रासाद में आनन्द के साथ रमण करते हुए रहना । यदि तुम इस बीच में ऊब जाऔ, उत्सुक होओ या कोई उपद्रव हो, तुम पूर्व दिशा के वनखण्ड में चले जाना। उस पूर्व दिशा के वनखण्ड में दो ऋतुएँ सदा स्वाधीन हैं- प्रावृष ऋतु तथा वर्षाऋतु उनमें से(उस वनखण्ड में सदैव) प्रावृष ऋतु रूपी हाथी स्वाधीन है । [११४] कंदल-नवीन लताएँ और सिलिंध्र-भूमिफोड़ा उस प्रावृष्-हाथी के दांत हैं । निउर नामक वृक्ष के उत्तम पुष्प ही उसकी उत्तम सूंज हैं । कुटज, अर्जुन और नीप वृक्षों के पुष्प ही उसका सुगंधित मदजल हैं । [११५] और उस वनखण्ड में वर्षाऋतु रूपी पर्वत भी सदा स्वाधीन-विद्यमान रहता हैं, क्योंकि वह इन्द्रगोप रूपी पद्मराग आदि मणियों से विचित्र वर्णवाला रहता है, और उसमें मेंढ़को के समूह के शब्द-रूपी झरने की ध्वनि होती रहती हैं । वहाँ मयूरों के समूह-सदैव शिखरों पर विचरते हैं । [११६] हे देवानुप्रियों! उस पूर्व दिशा के उद्यान में तुम बहुत-सी बावड़ियों में, यावत् बहुत-सी सरोवरों की श्रेणियों में, बहुत-से लतामण्डपों में, वल्लियों के मंडपों में यावत् बहुतसे पुष्पमंडपों में सुख-सुखे रमण करते हुए समय व्यतीत करना । अगर तुम वहाँ भी ऊब जाओ, उत्सुक हो जाओ या कोई उपद्रव हो जाये-भय हो जाये, तो तुम उत्तर दिशा के वनखण्ड में चले जाना । वहाँ भी दो ऋतुएँ सदा स्वाधीन हैं । वे यह हैं-शरद् और हेमन्त। उनमें से शरद इस प्रकार हैं [११७] शरद् ऋतु रूपी गोपति-वृषभ सदा स्वाधीन हैं । सन और सप्तच्छद वृक्षों के पुष्प उसका ककुद है, नीलोत्पल, पद्म और नलिन उसके सींग हैं, सारस और चक्रवाक पक्षियों का कूजन ही उसकी घोष है । [११८] हेमन्त ऋतु रूपी चन्द्रमा उस वन में सदा स्वाधीन है । श्वेत कुन्द के फूल उसकी धवल ज्योत्स्ना है । प्रफुल्लित लोध्र वाला वनप्रदेश उसका मंडलतल है और तुषार के जलबिन्दु की धाराएँ उसकी स्थूल किरणें हैं । [११९] हे देवानुप्रियो ! तुम उत्तर दिशा के उस वनखण्ड में यावत् क्रीड़ा करना । यदि तुम उत्तर दिशा के वनखण्ड में भी उद्विग्न हो जाओं, यावत् मुझसे मिलने के लिए उत्सुक हो जाओ, तो तुम पश्चिम दिशा के वनखण्ड में चले जाना । उस वनखण्ड में भी दो ऋतुएँ
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy