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________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/९/१२३ १५९ दक्षिण दिशा से दुर्गंध फूटने लगी, जैसे कोई सांप का मृत क्लेवर हो, यावत् उससे भी अधिक अनिष्ट दुर्गंध आने लगी । उन माकंदीपुत्रों ने उस अशुभ दुर्गंध से घबराकर अपनेअपने उत्तरीय वस्त्रों से मुँह ढ़क लिए । मुँह ढ़क करवे दक्षिण दिशा के वनखण्ड में पहुँचे । वहाँ उन्होंने एक बड़ा वधस्थान देखा । देखकर सैकड़ों हाड़ों के समूह से व्याप्त और देखने में भयंकर उस स्थान पर शूली पर चढ़ाये हुए एक पुरुष को करुण, विरस और कष्टमय शब्द करते देखा । उसे देखकर वे डर गये । उन्हें बड़ा भय उत्पन्न हुआ । फिर वे जहां शूली पर चढ़ाया पुरुष था, वहाँ पहुँचे और बोले- 'हे देवानुप्रिय ! यह वधस्थान किसका है ? तुम कौन हो ? किसलिए यहाँ आये थे ? किसने तुम्हें इस विपत्ति में डाला है ?' तब शूली पर चढ़े उस पुरुष ने माकन्दीपुत्रों से इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रियो ! यह रत्नद्वीप की देवी का वधस्थान है । देवानुप्रियों ! मैं जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित काकंदी नगरी का निवासी अश्वों का व्यापारी हूँ । मैं बहुत-से अश्व और भाण्डोपकरण पोतवहन में भर कर लवण समुद्र में चला । तत्पश्चात् पोतवहन के भग्न हो जाने से मेरा सब उत्तम भाण्डपकरण डूब गया | मुझे पटिया का एक टुकड़ा मिल गया । उसी के सहारे तिरता - तिरता मैं द्वीप के समीप आ पहुँचा। उसी समय रत्नद्वीप की देवी ने मुझे अवधिज्ञान से देखा । देख कर उसने मुझे ग्रहण कर लिया अपने कब्जे में कर लिया, वह मेरे साथ विपुल कामभोग भोगने लगी । तत्पश्चात् रत्नद्वीप की वह देवी एक बार, किसी समय, एक छोटे-से अपराध कर अत्यन्त कुपित हो गई और उसी ने मुझे इस विपदा में पहुँचाया है । देवानुप्रियों ! नहीं मालूम तुम्हारे इस शरीर को भी कौन-सी आपत्ति प्राप्त होगी ?” [१२४] तत्पश्चात् वे माकन्दीपुत्र शूली पर चढ़े उस पुरुष से यह अर्थ सुनकर और हृदय में धारण करके और अधिक भयभीत हो गये । तब उन्होंने शूली पर चढ़े पुरुष से इस प्रकार कहा- 'देवानुप्रिय ! हम लोग रत्नद्वीप के देवता के हाथ से छुटकारा पा सकते हैं ? ' तब शूली पर चढ़े पुरुष ने उन माकन्दीपुत्रों से कहा- 'देवानुप्रियो ! इस पूर्व दिशा के वनखण्ड में शैलक यक्ष का यक्षायतन हैं । उसमें अश्व का रूप धारण किये शैलक नामक यक्ष निवास करता है । वह शैलक यक्ष चौदस, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन आगत समय और प्राप्त समय होकर खूब ऊँचे स्वर में इस प्रकार बोलता हैं- 'किसको तारूँ ? किसको पालूँ ?' तो हे देवानुप्रियो ! तुम लोग पूर्व दिशा के वनखण्ड में जाना और शैलक यक्ष की महान् जनों के योग्य पुष्पों से पूजा करना । पूजा करके घुटने और पैर नमा कर, दोनों हाथ जोड़कर, विनय के साथ उसकी सेवा करते हुए ठहरना । जब शैलक यक्ष नियत समय आने पर कहे कि- 'किसको तारूँ, किसे पालू' तब तुम कहना - 'हमें तारों, हमें पालो ।' इस प्रकार शैलक यक्ष ही केवल रत्नद्वीप की देवी के हाथ से, अपने हाथ से स्वयं तुम्हारा निस्ताकर करेगा । अन्यथा मैं नहीं जानता कि तुम्हारे इस शरीर को क्या आपत्ति हो जायगी ?" तत्पश्चात् वे माकन्दीपुत्र शूली पर चढ़े पुरुष से इस अर्थ को सुनकर और मन में धारण करके शीघ्र, प्रचण्ड, चपल, त्वरावाली और वेगवाली गति से जहाँ पूर्व दिशा का वनखण्ड था, और उसमें पुष्करिणी थी, वहाँ आये । पुष्करिणी में प्रवेश किया । स्नान किया । वहाँ जो कमल, उत्पल, नलिन, सुभग आदि कमल की जातियों के पुष्प थे, उन्हें ग्रहण किया। शैलक यक्ष के यक्षायतन में आए । यक्ष पर दृष्टि पड़ते ही उसे प्रणाम किया । फिर
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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