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________________ ३६ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद को पृथक् करने वाला, एक को भी पृथक् कर देता है । ( वीतराग की ) आज्ञा में श्रद्धा रखने वाला मेधावी होता है । साधक आज्ञा से लोक को जानकर (विषयों) का त्याग कर देता है, वह अकुतोभय हो जाता है । शस्त्र (असंयम) एक से एक बढ़कर तीक्ष्ण से तीक्ष्णतर होता है किन्तु अशस्त्र (संयम) एकसे एक बढ़कर नहीं होता । [१३८] जो क्रोधदर्शी होता है, मायादर्शी होता है; जो मायादर्शी होता है, प्रेमदर्शी होता है; जो प्रेमदर्शी होता है, मोहदर्शी होता है; जो मोहदर्शी होता है, जन्मदर्शी होता है; जो जन्मदर्शी होता है, नरकदर्शी होता है; जो नरकदर्शी होता है, वह दुःखदर्शी होता है; वह मानदर्शी होता है; जो मानदर्शी होता है, वह वह लोभदर्शी होता है; जो लोभदर्शी होता है, वह वह द्वेषदर्शी होता है; जो द्वेपदर्शी होता है, वह वह गर्भदर्शी होता है; जो गर्भदर्शी होता है, वह वह मृत्युदर्शी होत है; जो मृत्युदर्शी होता है, वह वह तिर्यंचदर्शी होता है; जो तिर्यचदर्शी होता है, ( अतः ) वह मेधावी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, मोह, गर्भ, जन्म, मृत्यु, नरक, तिर्यंच और दुःख को वापस लौटा दे। यह समस्त कर्मों का अन्त करने वाले, हिंसाअसंयम से उपरत एवं निरावरण द्रष्टा का दर्शन है । जो पुरुष कर्म के आदान को रोकता है, वही कर्म का भेदन कर पाता है । क्या सर्व द्रष्टा की कोई उपधि होती है ? नहीं होती । ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन - ३ का मुनिदीपरत्न सागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण अध्ययन-४ सम्यकत्व उद्देशक - १ [१३९] मैं कहता हूँ - जो अर्हन्त भगवान् अतीत में हुए हैं, जो वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे - वे सब ऐसा आख्यान करते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापन करते हैं, ऐसा प्ररूपण करते हैं समस्त प्राणियों, सर्व भूतों, सभी जीवों और सभी सत्त्वों का हनन नहीं करना चाहिए, बलात् उन्हें शासित नहीं करना चाहिए, न उन्हें दास बनाना चाहिए, न उन्हें परिताप देना चाहिए और न उनके प्राणों का विनाश करना चाहिए । - यह अहिंसा धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है । खेदज्ञ अर्हन्तों ने लोक को सम्यक् प्रकार से जानकर इसका प्रतिपादन किया है । जैसे कि - जो धर्माचरण के लिए उठे हैं, अथवा अभी नहीं उठे हैं; जो धर्मश्रवण के लिए उपस्थित हुए हैं, या नहीं हुए हैं; जो दण्ड देने से उपरत हैं, अथवा अनुपरत हैं; जो उपधि से युक्त हैं, अथवा उपधि से रहित हैं, जो संयोगों में रत हैं, अथवा संयोगों में रत नहीं हैं । वह ( अर्हत्प्ररूपित धर्म) सत्य है, तथ्य है यह इस में सम्यक् प्रकार से प्रतिपादित है । [१४०] साधक उस (अर्हत् भाषित-धर्म) को ग्रहण करके ( उसके आचरण हेतु अपनी शक्तियों को) छिपाए नहीं और न ही उसे छोड़े । धर्म का जैसा स्वरूप है, वैसा जानकर ( उसका आचरण करे ) | ( इष्ट-अनिष्ट) रूपों (इन्द्रिय विषयो) से विरक्ति प्राप्त करे । वह लोकैषणा में न भटके ।
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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