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________________ ३५ आचार-१/३/३/१२८ वे चिन्ता नहीं करते कि इसका अतीत क्या था, भविष्य क्या होगा ? कुछ (मिथ्याज्ञानी) मानव यों कह देते हैं कि जो इसका अतीत था, वही भविष्य होगा । [१२९] किन्तु तथागत (सर्वज्ञ) न अतीत के अर्थ का स्मरण करते हैं और न ही भविष्य के अर्थ का चिन्तन करते हैं । (जिसने कर्मों को विविध प्रकार से धूत कर दिया है, ऐसे) विधूत के समान कल्प वाला महर्षि इन्हीं के दर्शन का अनुगामी होता है, अथवा वह क्षपक महर्षि वर्तमान का अनुदर्शी हो (पूर्व संचित) कर्मों का शोषण करके क्षीण कर देता है । [१३०] उस (धूत-कल्प) योगी के लिए भला क्या अरति है और क्या आनन्द है ? वह इस विषय में बिल्कुल ग्रहणरहित होकर विचरण करे । वह सभी प्रकार के हास्य आदि का त्याग करके इन्द्रियनिग्रह तथा मन-वचन-काया को तीन गुप्तियों से गुप्त करते हुए विचरण करे । हे पुरुष ! तू ही मेरा मित्र है, फिर बाहर, अपने से भिन्न मित्र क्यों हूँढ रहा है ? [१३१] जिसे तुम उच्च भूमिका पर स्थित समझते हो, उसका घर अत्यन्त दूर समझो, जिसे अत्यन्त, दूर समझते हो, उसे तुम उच्च भूमिका पर स्थित समझो । हे पुरुष ! अपना ही निग्रह कर । इसी विधि से तू दुःख से मुक्ति प्राप्त कर सकेगा । हे पुरुष ! तू सत्य को ही भलीभाँति समझ ! सत्य की आज्ञा में उपस्थित रहने वाला वह मेधावी मार (संसार) को तर जाता है । सत्य या ज्ञानादि से युक्त साधक धर्म को ग्रहण करके श्रेय (आत्म-हित) का सम्यक् प्रकार से अवलोकन कर लेता है । [१३२] राग और द्वेष (इन) दोनों से कलुषित आत्मा जीवन की वन्दना, सम्मान और पूजा के लिए प्रवृत्त होता है । कुछ साधक भी इन के लिए प्रमाद करते हैं । [१३३] ज्ञानादि से युक्त साधक दुःख की मात्रा से स्पृष्ट होने पर व्याकुल नहीं होता, । आत्मद्रष्टा वीतराग पुरुष लोक में आलोक के समस्त प्रपंचों से मुक्त हो जाता है । ऐसा मैं कहता हूँ। | अध्ययन-३ उद्देशक-४ [१३४] वह (साधक) क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन कर देता है । यह दर्शन हिंसा से उपरत तथा समस्त कर्मों का अन्त करने वाले सर्वज्ञ-सर्वदर्शी का है । जो कर्मों के आदान का निरोध करता है, वही स्व-कृत का भेत्ता है । [१३५] जो एक को जानता है, वह सब को जानता है । जो सबको जानता है, वह एक को जानता है । [१३६] प्रमत्त को सब ओर से भय होता है, अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं होता । जो एक को झुकाता है, वह बहुतों को झुकाता है, जो बहुतों को झुकाता है, वह एक को झुकाता है । साधक लोक- के दुःख को जानकर (उसके हेतु कषाय का त्याग करे) वीर साधक लोक के संयोग का परित्याग कर महायान को प्राप्त करते हैं । वे आगे से आगे बढ़ते जाते हैं, उन्हें फिर जीवन की आकांक्षा नहीं रहती । [१३७] एक को पृथक् करने वाला, अन्य (कर्मों) को भी पृथक् कर देता है, अन्य
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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