SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार-१/४/१/१४० [१४१] जिस मुमुक्षु में यह बुद्धि नहीं है, उससे अन्य (सावद्यारम्भ-) प्रवृत्ति कैसे होगी ? अथवा जिसमें सम्यक्त्व ज्ञाति नहीं है या अहिंसा बुद्धि नहीं है, उसमें दूसरी विवेक बुद्धि कैसे होगी ? यह जो (अहिंसा धर्म) कहा जा रहा है, वह इष्ट, श्रुत, मत और विशेष रूप से ज्ञात है । हिंसा में (गृद्धिपूर्वक) रचे-पचे रहने वाले और उसी में लीन रहने वाले मनुष्य बार-बार जन्म लेते रहते हैं । [१४२] (मोक्षमार्ग में) अहर्निश यत्न करने वाले, सतत प्रज्ञावान्, धीर साधक ! उन्हें देख जो प्रमत्त हैं, (धर्म से) बाहर हैं । इसलिए तू अप्रमत्त होकर सदा (धर्म में) पराक्रम कर । ऐसा मैं कहता हूँ । | अध्ययन-४ उद्देसक-२ [१४३] जो आस्त्रव (कर्मबन्ध) के स्थान हैं, वे ही परिस्रव-कर्मनिर्जरा के स्थान बन जाते हैं, जो परित्रव हैं, वे आस्त्रव हो जाते हैं, जो अनास्त्रव-व्रत विशेष हैं, वे भी अपरित्रव - कर्म के कारण हो जाते हैं, (इसी प्रकार) जो अपरित्रव, वे भी अनास्त्रव नहीं होते हैं । इन पदों को सम्यक् प्रकार से समझने वाला तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित लोक को आज्ञा के अनुसार सम्यक् प्रकार से जानकर आस्त्रवों का सेवन न करे । [१४४] ज्ञानी पुरुष, इस विषय में, संसार में स्थित, सम्यक् बोध पाने के लिए उत्सुक एवं विज्ञान-प्राप्त मनुष्यों को उपदेश करते हैं । जो आर्त अथवा प्रमत्त होते हैं, वे भी धर्म का आचरण कर सकते हैं । यह यथातथ्य-सत्य है, ऐसा मैं कहता हूँ। जीवों को मृत्यु के मुख में जाना नहीं होगा, ऐसा सम्भव नहीं है । फिर भी कुछ लोग इच्छा द्वारा प्रेरित और वक्रता के घर बने रहते हैं । वे मृत्यु की पकड़ में आ जाने पर भी कर्म-संचय करने या धन-संग्रह में रचे-पचे रहते हैं । ऐसे लोग विभिन्न योनियों में बारम्बार जन्म ग्रहण करते रहते हैं । [१४५] इस लोक में कुछ लोगों को उन-उन (विभिन्न मतवादों) का सम्पर्क होता है, (वे) लोक में होने वाले दुःखों का संवेदन करते हैं । जो व्यक्ति अत्यन्त गाढ़ अध्यवसायवश क्रूर कर्मोंसे प्रवृत्त होता है, वह अत्यन्त प्रगाढ़ वेदना वाले स्थान में उत्पन्न नहीं होता । यह बात चौदह पूर्वो के धारक श्रुतकेवली आदि कहते हैं या केवलज्ञानी भी कहते हैं । जो यह बात केवलज्ञानी कहते हैं वही श्रुतकेवली भी कहते हैं । [१४६] इस मत-मतान्तरों वाले लोक में जितने भी, जो भी श्रमण या ब्राह्मण हैं, वे परस्पर विरोधी भिन्न-भिन्न मतवाद का प्रतिपादन करते हैं । जैसे कि कुछ मतवादी कहते हैं . “हमने यह देख लिया है, सुन लिया है, मनन कर लिया है, और विशेष रूप से जान भी लिया है, ऊँची, नीची और तिरछी सबी दिशाओं में सब तरह से भली-भाँति इसका निरीक्षण भी कर लिया है कि सभी प्राणी, सभी जीव, सभी भूत और सभी सत्त्व हनन करने योग्य हैं, उन पर शासन किया जा सकता है, उन्हें परिताप पहुँचाया जा सकता है, उन्हें गुलाम बनाकर रखा जा सकता है, उन्हें प्राणहीन बनाया जा सकता है । इसके सम्बन्ध में यही समझ लो कि हिंसा में कोई दोष नहीं है ।" यह अनार्य लोगों का कथन है ।
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy