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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सतं-१७, उद्देसो-१४ ३५५ ७८||-1 -: चो दस मो-उहे सो:-- (७१७) सुवण्णकुमारा णं भंते सव्वे समाहारा एवं चेव सेवं मंते सेवं भंते ति।६१३१612 •सतरसपेसते चोइसमो उद्देसोसमत्तो. -: पत्र र स मा-उद्दे सो :(७१८) विजुकुमारा गंभंते सव्वे सपाहारा एवं चेव सेवं मंते सेवं भंते त्ति।६१४613 सतरसमे सते पवरसमो उद्देसो समत्तो. -: सो ल स मोउ दे सो :(७१९) वायुकुमाराणं भंते सव्वे समाहारा एवं चेव सेवं भंते सेवं भंते ति।६१५614 • सतरसपे सते सोलसपो उद्देसो समत्तो. - सत्त र समो-उद्दे सो :(७२०) अग्गिकुमारा णं भंते सब्बे सपाहारा एवं चेव सेवं भंते सेवं भंते ति।६१६/-615 •सतरसमे सते सतरसमो उद्देसो सपत्तो सतरसम सत समत्तं. | अट्ठारसमं - सत्तं -: प ट मो-उद्दे सो :(७२१) पढमे विसाह मायंदिएय पाणाइवाय असुरे य गुल केवलि अणगारे भविएतए सोमिलट्ठारसे १७२२) तेणं कालेणं तेणंसमएणं परायगिहे जाव एवं ववासी-जीवे णं भंते जीव भावेणं किं पढमे अपढमे गोयमा नो पढमे अपढमे एवं नेरइए जाव वेमाणिए, सिद्धे णं भंते सिद्धभावेणं किं पढमे अपढमे गोयमा पढमे नो अपढपे जीवा णं भंते जीवभावणं किं पढमा अपढमा गोयमा नो पढमा अपढमा एवं जाव वेमाणिया, सिद्धा णं-पुच्छा गोयमा पढमा नो अपढमा आहारए णं भंते जीवे आहारभावेणं किं पढमे अपढपे गोयमा नो पढमे अपढमे एवं जाव वेमाणिए पोहत्तिए एवं चेव अणाहारएणं भंते जीवे अणाहारभावेणं-पुच्छा गोयमा सिय पढमे सिय अपढमे नेरइए णं मंते जीवे अणाहारभावेणं-पुच्छा एवं नेरइए जाच वेमाणिए नो पढमे अपढमे सिद्धे पढमे नो अपढमे अणाहारगा णं भंते जीवा अणाहारभावेणं-पुच्छा गोयमा पढमा वि अपढमा वि नेरइया जाव वेमाणिया नो पढमा अपढमा सिद्धा पढपा नो अपढमा-एककेकके पच्छा भाणियव्या भचिसिद्धीए एगत्तं-पुहत्तेणं जहा आहारए एवं अभविसिद्धीए विनोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीए णं भंते जीरे नोभवसिद्धीव-नोअभयसिद्धीयभावेणं-पुच्छा गोयमा पढमे नो अपढमे नोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीए णं मंते सिद्धे नोभवसिद्धीय नोअभवसिद्धीयभावेणं-पुच्छा एवं पुहत्तेणं विदोण्ह विसण्णी णं भंते जीवे सण्णीभावेणं किं पढमे पुच्छा गोयमा नो पढमे अपढमे एवं विगलिंदिववनं जाव वेमाणिए एवं पुहत्तेणं वि असण्णी एवं वेव एगत्त-पुहत्तेण नवरं जाव वाणमंतरा नोसण्णीनोअसण्णी जीवे मणस्से सिद्धे पढमे नो अपढमे एवं पुहत्तेणं, वि सलेसे णं भंते-पुच्छा गोयमा जहा आहारए एवं पुहत्तेणं विकण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा एवं चेव नवरं-जस्स जा लेसा अस्थि अलेसेणंजीव मणुस्स-सिद्धे जहा नोसण्णी-नो असण्णी सम्मदिवीएणं भंते जीवे सम्मदिट्ठीभावेणं किं पढमे-पुच्छा गोयमासिय पढमे सिय अपढमे एवं एगिदियवजं जाय वेमाणिए सिद्धे गोयमा सिय पढमे सिय अपढमे एवं एगिंदियवन्जं जाव For Private And Personal Use Only
SR No.009731
Book TitleAgam 05 Vivahapannatti Angsutt 05 Moolam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Shrut Prakashan
Publication Year1996
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 05, & agam_bhagwati
File Size10 MB
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