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________________ १३० १३१ श्री त्रिभंगीसार जी भेदज्ञानी हैं वे अपने ज्ञान भाव और रागादि अज्ञान भाव में भेद करके ज्ञान भाव को स्वीकार करते हैं तद्प परिणत होते हैं, रागादि अज्ञान भाव रूप परिणत नहीं होते। • मोह रूप संकल्प तथा राग-द्वेष रूप विकल्प यह सब जीव के अज्ञान भाव हैं। यह जीव अपनी इस भूल के कारण ही कर्म बन्ध करता है, यदि वह अपने स्वरूप का सही बोध कर ले और किसी भी पदार्थ में राग-द्वेष की भावना न करे तो, अज्ञान चेतना रहित, ज्ञान चेतना सहित वह ज्ञानी है। उस समय उसकी यह परिणति ज्ञानमय परिणति है, इस ज्ञानमय परिणति के होने पर जीव दोनों प्रकार के आस्रव अभाव कर निराम्रवदशा को प्राप्त करता है * मोह-राग-द्वेषभावकेसमय ही जीव अपने स्वरूपकोभूलता है, अत: यह ही अज्ञान भाव हैं। इस कारण राग-द्वेष,मोह से रचित भाव होने पर ज्ञानभाव की शुद्ध परिणति नहीं होती, अत: यह तीनोंभाव अज्ञान परिणति स्वरूप हैं ; फलत: यह ही द्रव्य-भाव कर्मास्रवों के कारण हैं। . जिसे आत्म बोध होता है वह अपने स्वभाव की प्राप्ति के प्रति हीरुचि, प्रीति, प्रतीति करता है। अन्य पदार्थ को अपने से भिन्न मानकर उसके संयोग-वियोग की चिन्ता नहीं करता, ऐसा भेदज्ञानी सम्यक्दृष्टि जीव दोनों प्रकार का कर्मास्रव नहीं करता। . भावानव अपने विकारी परिणामों को कहते हैं क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्म बन्ध के वे ही कारण हैं। बन्ध के कारण को ही आम्रव कहते हैं, इस तथ्य को सम्यक्दृष्टि जानता है क्योंकि उसे रागादि विकारी भाव तथा अपने निज चैतन्य स्वभाव में भेदज्ञान हो चुका है। * अपनी निज ज्ञान शक्ति का आलम्बन कर अर्थात् अपने स्वभाव को ही अपने उपयोग में लाने से पूर्वबद्ध कर्म पिण्ड में स्थिति अनुभाग का खण्डन हो जाता है जिससे कि उदय की धारा में परिवर्तन हो जाता है, इस परिवर्तन से ही अबुद्धिपूर्वक रागादि विलीयमान होते हैं। जो सम्यक्दृष्टि ज्ञानी है , उसने पूर्व दशा में अज्ञान वश नाना सिद्धांत सूत्र प्रकार के कर्मों का बन्ध कर रखा है, अभी जिनका अभाव नहीं हुआ वे कर्म आत्मा से संबद्ध हैं, कभी यद्यपि उदय को प्राप्त होते हैं, समय-समय पर उदय में आते हैं तथापि उस अवस्था में भी जीवमोह ,राग-द्वेष रूप विकारी परिणामों के अभाव से कर्म बन्ध को कदाचित् भी प्राप्त नहीं होता। - बन्ध का कारण जीव का मोह अर्थात् मिथ्यात्व भाव तथा राग द्वेष अर्थात् कषाय भाव हैं। ज्ञानी पुरूष के इन तीनों का अभाव है अत: उसे कर्म बन्ध नहीं होता अर्थात् वह भावानव रूप परिणामों के अभाव में अबन्ध रूप है। * द्रव्य दृष्टि या स्वभाव दृष्टि से संसारी जीव कर्म से अबद्ध हैं, वर्तमान पर्याय अशुद्ध है उसे मिटाकर स्वरूप रूप परिणमन करना ही मुक्ति प्राप्त करना है। शुद्धात्म ज्ञान ही ऐसा प्रबल हेतु है जो आत्मा को कर्म रहित बना देता है अत: उसे प्राप्त करना ही श्रेयस्कर है। - सम्यक्दृष्टि जीव में जो आत्म दृष्टि प्रगट होती है वह दृष्टि ही मुक्ति का बीज है, उसके कारण ही जीव मिथ्याज्ञान से विमुक्त होकर सम्यक् ज्ञानी बनता है तथा अपनी अनादिकालीन भ्रमपूर्ण सांसारिक प्रवृत्तियों को दूर कर आत्मानुकूल प्रवृत्तियों द्वारा अपने को निर्बन्ध बनाने में सफल होकर केवलज्ञान को प्रगट कर अरिहन्त दशा प्राप्त करता है। . संसार के दुःखों का समूल नाश इसी आत्मदर्शन , आत्मबोध और आत्मध्यान से होता है, इनका नाम ही सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है अत: आत्मज्ञान की सदा आराधना करनी चाहिए इसके बिना नवीन आस्रव भाव नहीं रुकता। है जिसकी भूल दूर होगी वही अपने स्वरूप को प्राप्त करेगा, भेदज्ञानी भी अपनी भूल को मिटाकर अपने निर्मल स्वभाव का मनन करता हुआ पर से भिन्न होकर अपनी शुद्धात्मा को भेदविज्ञान के बल से प्राप्त कर लेता है। . सम्यक्दृष्टि के बुद्धिपूर्वक आस्रव बंध नहीं है और जो पूर्व बद्ध कर्म हैं उनका वह ज्ञाता होता है।
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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