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________________ १२८ श्री त्रिभंगीसार जी साधक की कामधेनु है, साधक के लिए यह कल्पवृक्ष है। इसकी प्रत्येक गाथा अध्यात्म साधना में रत ज्ञानानुभूति में डूबकर आत्म अनुभव से लिखी गई है। सद्गुरू श्री जिन तारण स्वामी भगवान महावीर स्वामी के समवशरण में उपस्थित रहे हैं, उनकी दिव्यध्वनि को सुना, आत्मसात् किया, वस्तु स्वरूप को जाना, यह बात यथातथ्य है, अक्षरश: सत्य है। श्री छद्मस्थवाणी जी ग्रन्थ से प्रमाणित है इसलिए इसमें लेशमात्र भी शंका के लिए स्थान नहीं है। उन परम उपकारी श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज द्वारा रचित त्रिभंगीसार ग्रन्थ में जिनेन्द्र परमात्मा द्वारा उपदिष्ट वस्तु स्वरूप का निर्णय है। सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः * ॐ शुद्धात्मने नमः * * त्रिभंगीसार : सिद्धान्त सूत्र★ • आत्मा के जिस परिणाम से कर्म का आस्रव होता है उसे जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथितभावानव जानना और जो ज्ञानावरणादि कर्मों का आम्रव है वह द्रव्यास्रव है। . वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से शरीर , वचन और मन की अपेक्षा लेकर जो आत्मा की चेष्टा होती है, उसे सूत्र के ज्ञाताओं ने कर्मास्रवों का निमित्त होने से आस्रव कहा है। जैसे-सरोवर में पानी आने के द्वार को आस्रव कहते हैं, उसी प्रकार आत्मा में कर्मागमन के कारणभूत ऐसी जो मन, वचन, काय की प्रवृत्ति उसे आम्रव कहते हैं। * शुभ परिणामों से उत्पन्न होने वाली मन, वचन और शरीर की चेष्टा से आत्मा में शुभ कर्म का आगमन होता है और अशुभ परिणामों से उत्पन्न होने वाली मन, वचन और शरीर की चेष्टा से अशुभ कर्म का आगमन होता है। शुभ योग शुभाम्रव का, पुण्यास्रव का कारण है और अशुभ योग अशुभास्रव का, पापास्रव का कारण है। . क्रोध,मान, माया और लोभ से उत्पन्न हुए आस्रव, कर्मागमन को सांपरायिक आस्रव कहते हैं। सांपराय का अर्थ संसार है अर्थात् संसार जिसका प्रयोजन है ऐसे आस्रव को सांपरायिक आस्रव कहते हैं। यह आम्रव कषाय वाले जीव को होता है और ईर्यापथ आम्रव, अकषाय जीव अर्थात् कषाय रहित जीव को होता है। • जैसे अपने अहंकार के वश हुआ कोई योद्धा उन्मत्त पुरुष की तरह अपने में ही चूर होकर बड़े गर्व की गति से पैर बढ़ाता हुआ आवे और यदि उसे कोई अन्य बलवान, धीर-वीर,धनुषधारी पुरुष युद्ध भूमि में परास्त करके निर्मद कर देवे तब वह समर भूमि छोड़कर भाग जाता है, इसी प्रकार जीवों को संसार कीरंगभूमि में अपने वश कर लेने के अहंकार से मदमत्त आम्रवभाव को सम्यक्ज्ञान रूपी अन्य योद्धा परास्त कर देता है। * आम्रवभाव अर्थात् पर पदार्थ मेंराग-द्वेष आदि परिणाम जीव के अज्ञान जनित भाव हैं। ज्ञानी जीव इन भावों से बचता है, जोसम्यक्दृष्टि हैं, ..................... इस ब्रथ की टीका लिखने में जो अपूर्व लाभ : मुझे मिला वह अवक्तव्य है। जो धर्म का सूक्ष्म रहस्य और आसव का रहस्य अभी तक जानने में नहीं आया था, वह सबुक की कृपा से समझ में आया, हम उनके प्रति अत्यंत कृतज्ञ हैं। सभी भव्य जीवों का मोक्षमार्ग प्रशस्त हो, यही : मंगल भावना है। बरेली-२५.१०.१९९२ ज्ञानानन्द . . . .
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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