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________________ श्री त्रिभंगीसार जी दशा को प्राप्त कर सकता है तथा यदि गुणहीन की संगति हो तो ऊँचे कुल का मानव भी क्षणमात्र में लघुता को पा जाता है; अत: जगत में गुण ही पूज्य हैं। १५.अद्रित, अचेत, परिनाम:वीन भाव गाथा-२३ अनित अचेत दिस्टंते, परिनामं जन तिस्टते। अन्यानी मूह दिस्टीच, मिथ्या त्रिभंगी दलं॥ अन्नवार्य-(अनित अचेत दिस्टंते ) क्षणभंगुर, नाशवान, अचेतन पदार्थों की ओर देखता है (परिनाम जत्र तिस्टते) जहाँ यही परिणाम रहते हैं (अन्यानी मूढ दिस्टी च ) ऐसे अज्ञानी मूढ दृष्टि जीव (मिथ्या त्रिभंगी दलं) मिथ्या मय इन तीन भावों से कर्मास्रव करते हैं। विशेषार्थ- क्षणभंगुर, नाशवान पदार्थों को देखना, अचेतन, जड़ पुद्गल को देखना और उन्हीं के भावों में परिणाम का ठहरना, यह तीनों भाव कर्मास्रव के कारण हैं। अज्ञानी, मूढ दृष्टि जीव इन मिथ्या भावों से कर्म का आश्रव बंध करता रहता है। पर में दृष्टि होना तथा वैसा ही भाव रखना उनके परिणामों में ही ठहर जाना कर्मास्रव है। संसार क्षणभंगुर, नाशवान पदार्थों से भरा पड़ा है। धन, वैभव, महल, मकान, मंदिर, दुकान शरीरादि जड़, अचेतन, नाशवान हैं। अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव विषयों के दास बने रहते हैं। धन प्राप्ति के लिए अन्याय, अनाचार,हिंसा आदि पाप करते हैं। दूसरों के महल मकान, धन, वैभव आदि देखकर हमेशा उनका ही विचार करते रहते हैं। उन्हीं भावों में रत रहते हैं और व्यर्थ में कर्मबन्ध करते हैं। साधक भी इन क्षणभंगुर,अचेतन पदार्थों को देखकर, उनका परिणाम करके कर्मास्रव करता है। धन-परिवार की ओर देखने से मोह-माया-लोभ के भाव होते हैं। शरीर की तरफदेखने से विषय-विकार के भाव होते हैं। धन-वैभव की मूर्छा तथा उस ओर देखने से पाप परिग्रह, करने-धरने के भाव होते हैं। समाज की तरफ देखने से राग-द्वेष के भाव होते हैं, संसार देश की तरफ देखने से राजनीति, लड़ने-मरने के भाव होते हैं। पर का विचार, पर की चिन्ता, मन की कल्पना, विकल्प आदि आकुलता, अशांति और दु:ख के कारण हैं। जहाँ उपयोग रहता है, वहाँ इष्ट बुद्धि हो तो सुख का वेदन तथा जहाँ अनिष्ट बुद्धि हो तो दु:ख का वेदन होता है। जहाँ जीव की रुचि-दृष्टि होती है, उपयोग वहीं गाथा-२४ जाता है। मोह, राग-द्वेष के वशीभूत ऐसा जीव दु:ख पाता है; अत: इन सबसे बचने के लिए अपनी दृष्टि, अपनी रुचि अपनी ओर लगाना चाहिए। विकल्प करने वाला मूर्ख, अज्ञानी होता है। जो जीव अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है, उसका सारा परिणमन मन के आश्रित होता है, जिससे सुख-दु:ख, आकुलता-व्याकुलता, भय-चिन्ता, पुण्य-पाप, जन्म-मरण, आदि कर्मबन्ध होता रहता है। मन के लिए दो मार्ग हैं -१. इन्द्रियों के विषय भोग २. माया की चाह इन दोनों के न होने पर मन मर जाता है। अपनी आत्मा का विचार, आत्म चिंतन-मनन, आत्मस्मरण ध्यान ही निराकुलता, शांति और आनन्द का कारण है। १६. असुद्ध, अभाव, मिस: वीन भाव गाथा-२४ असुद्धभाव संजुत्तं, मिस्र भाव सदा रतो। संसार भ्रमनं बीजं, त्रिभंगी असुह उच्यते॥ अन्वयार्थ-(असुद्ध भाव संजुत्तं) अशुद्ध भाव अर्थात् शुभाशुभ भाव में लीन होना (मिस्र भाव सदा रतो) मिश्रभाव अर्थात् शुभाशुभ मिश्रित भाव में सदैव रत रहना (संसार भ्रमनं बीज) यह संसार भ्रमण के बीज हैं (त्रिभंगी असुह उच्यते) इन तीनों भावों को अशुभ कहा गया है। विशेषार्थ- शुभ-अशुभ और मिश्र, यह तीनों भाव संसार भ्रमण के बीज हैं, इन तीनों भावों को अशुभ कहा गया है। मंद कषाय से होने वाले शुभभाव- दया, दान, परोपकार, संयम, तप, पूजा, भक्ति, करुणा, मैत्री, प्रमोदभाव यह सब शुभ भाव कहे जाते हैं। तीव्र कषाय से होने वाले अशुभ भाव-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, अन्याय, अनीति, अत्याचार, व्यभिचार, बैर-विरोध, निन्दा आदि यह सब अशुभ भाव कहे गये हैं। यह शुभ और अशुभ दोनों अशुद्ध भाव कहे जाते हैं। शुभ और अशुभ दोनों मिले हुए भाव मिश्रभाव कहलाते हैं। यदि किसी से जरा सा भी राग है तो द्वेष होगा ही। राग में मिठास होती है, वह पुण्य रूप है; द्वेष में खटास होती है, वह पाप रूप है। इन्हीं दोनों से पुण्य -पाप बन्ध होता है। संसारी कार्य-कारण, निमित्त-संयोग में रहने से शुभभाव और शुभ क्रिया
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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