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________________ श्री त्रिभंगीसार जी पढ़ता- पढ़ाता है व उपन्यास, कहानी पढ़कर मन को रागी व कामी बनाता है। तीव्र सांसारिक ममत्व के कारण ऐसा कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र का भक्त देवमूढता, पाखण्ड मूढता में फँसा रहता है और नरकायु बांधकर नरक गति में चला जाता ३८ किसी फल की इच्छा करके आशावान होकर राग-द्वेष से मलीन देवताओं की मान्यता भक्ति करना देव मूढ़ता है। आरम्भ-परिग्रह व हिंसादि कर्म में लीन संसार की वासनाओं से ग्रसित गुरुओं की भक्ति करना गुरु मूढ़ता है। जो ऐसे कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र के प्रति श्रद्धा भक्ति रखते हैं उनके प्रति राग भाव रहता है, यह त्रिभंगी दल नरक ले जाने वाला है। जिसे कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र की मान्यता होती है, उसे ग्रहीत मिध्यात्व होता ही है। प्रश्न-जो साधक ज्ञान-ध्यान-साधना में रत संसारी पाप परिग्रह छोड़कर मुक्ति मार्ग पर चल रहा है उसे यह कुदेवादि के भावों से क्या प्रयोजन है ? समाधान- मोक्षमार्ग की साधना में अनेक बाधायें हैं। अनन्तकाल से इस मार्ग में जीव कहीं न कहीं भटक ही जाता है । द्रव्यलिंगी साधु होकर भी जीव शुभभाव की मिठास में भ्रमित हो जाता है, अन्य संसारी जीवों को सम्प्रदाय विकास, व्यवहार धर्म प्रचार के लिए मंत्रतंत्र, गण्डा- ताबीज देने लगता है, कुदेवादि की पूजा आराधना करने लगता है । मिथ्या मान्यताओं के लिए कथा-पुराण आदि कुशास्त्र लिखता है, कुदेवादि की पूजा, भक्ति- विधान रचकर संसारी जीवों को फँसाता है और उसके फलस्वरूप स्वयं नरकगति में चला जाता है । जब तक निश्चय सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान नहीं होता, तब तक जीव अनेक तरह से भ्रमित होता है; अत: ऐसे कार्य-कारणों से बचने के लिए साधक को बहुत सतर्क रहना आवश्यक है। सद्गुरू ने सूक्ष्म अंतरंग त्रिभंग रूप भावों का वर्णन किया है जिनसे सावधान न रहने पर मुक्ति के बजाय नरक जाना पड़ता है । १४. कुल, अकुल, कुसंग : तीन भाव गाथा - २२ कुल भावं सदा रुस्टं, अकुलं कुसंग संगते । अभावं तत्र अन्यानी, त्रिभंगी दल संजुतं ॥ गाथा- २३ अन्वयार्थ - (कुल भावं सदा रुस्टं) मैं उच्च कुल का हूँ, इस भावना में सदा रंजायमान रहता है (अकुलं कुसंग संगते) नीच कुल वालों की एवं भ्रष्ट, व्यसनी जीवों की संगति करता है (अभावं तत्र अन्यानी) उस संगति से अज्ञानी होकर कुभाव में मग्न रहता है (त्रिभंगी दल संजुतं) यह तीनों तरह के भाव पाप आम्रव के कारण हैं। विशेषार्थ - यहाँ कहा है कि कुल का गर्व, नीच कुल सेवा और कुसंगति यह तीनों भाव अज्ञान, राग-द्वेष, मोह विभावों में फँसने तथा कर्मबन्ध के कारण हैं। कुल का गर्व करते हुए यह जीव ऐसा मानता है कि हम उच्च कुल के हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय या जैन हैं, हमारा धर्म श्रेष्ठ है, हमारे भगवान श्रेष्ठ हैं, जगतपूज्य हैं, हम सब कुछ जानते हैं। उच्च कुल के गर्व से उन्मत्त होकर, कठोर परिणाम रख कर अपनी प्रशंसा तथा दूसरों की निंदा करता है । उच्च कुल के गर्व में, विनय सहित शास्त्रों का अध्ययन नहीं करता, सच्चे साधु-संतों की संगति व उनकी विनय भक्ति नहीं करता । तत्व ज्ञान न होने से रागी-द्वेषी बना रहता है, लोभी और अहंकारी बन जाता है। ३९ नीच कुल वाले वे हैं जो लोकनिंद्य काम किया करते हैं, जैसे-मदिरापान, अभक्ष्य भक्षण आदि । स्नान-शौच, वाक्य- कुवाक्य, कृत-अकृत्य का अविवेक और मूढपना रहता है। ऐसे नीच कुल वालों की संगति से जीव भी अविवेकी और मूढ हो जाता है, जिसका आचरण भी लोक निंद्य होता है। कुसंगति,जीव को महापापी बना देती है। जुआँ खेलना, माँस भक्षण, मदिरापान, चोरी करना, शिकार खेलना, वेश्यासेवन करना और परस्त्री गमन यह सातों व्यसन कुसंगति से ही सीखने में आते हैं। भांग पीना, तम्बाकू खाना, चौपड़, शतरंज, ताश खेलना, बकवाद करना, परनिंदा, आत्मप्रशंसा करना, विकथाओं में रत रहना यह सब कुसंगति से ही होता है। यह तीनों भाव महान अनर्थकारी कर्मास्रव के कारण हैं। इसलिए कर्मों के आस्रव बन्ध से बचने के लिए कुल का गर्व, नीच कुल सेवा और कुसंगति से अपने को हमेशा बचाकर रखना चाहिए । अतएव साधकों के लिए यह उचित है कि वे एकांत सेवन, मौन धारण, शास्त्र स्वाध्याय और सच्चे साधु-महात्माओं का सत्संग करें, तब ही इन भावों से बच सकते हैं। कुलहीन जीव भी सत्संगति से सचे गुणों को पाकर महान
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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