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________________ श्री त्रिभंगीसार जी ३० गाथा-१७ नहीं हो पाता। वह न तो आत्मा को पहिचानता हैन पुण्य-पाप को समझता है। वह संसारासक्त रहता है तथा अपना अनर्थ करता है। मिथ्यादेव, गुरु, धर्म की मान्यता देवमूढ़ता, गुरु मूढता, लोक मूढता में गर्भित है। मिथ्या देव, गुरु, धर्म की मान्यता के भाव अनन्त संसार के बन्धन में फँसाने वाले हैं एवं निगोद का पात्र बनाते हैं। ज्ञान तो वह है जिससे बाह्य वृत्तियाँ रुक जाती हैं, संसार से प्रीति घट जाती है। वह वस्तु स्वरूप को जान लेता है जिससे आत्मा में ज्ञान गुण प्रगट होता है। ८. मिथ्यावर्सन, मिथ्यात्यान, मिथ्याचारित्र: तीन भाव गाथा-१६ मिथ्या दर्सनं न्यानं, चरनं मिथ्या दिस्टते। अलहन्तो जिनं उक्तं,निगोयं दल पस्यते॥ अन्नपार्य-(मिथ्या दर्सनं न्यानं) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान (चरनं मिथ्या दिस्टते)सहित चारित्र भी मिथ्या देखा जाता है (अलहन्तो जिनं उक्त) जिनेन्द्र कथित सम्यग्दर्शन, ज्ञान,चारित्र मयी रत्नत्रय मार्ग से विचलित होकर (निगोयं दल पस्यते) निगोद का पात्र होता है, ऐसा देखा गया है। विशेषार्य- सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता मोक्षमार्ग है, आत्मा को कर्मबन्ध से छुड़ाने वाला है। मिथ्यादर्शन ,मिथ्याज्ञान ,मिथ्याचारित्र संसार भ्रमण का कारण है। जिनेन्द्र कथित मार्ग के विपरीत चलने वाले निगोदादि दुर्गति के पात्र होते हैं। अज्ञान दशा में जीव कर्मों का आसव बन्ध करता है जिससे संसार परिभ्रमण रूप दुःख भोगता है। इसका कारण यह है कि अज्ञानी जीव को अपने स्वरूप के सम्बन्ध में भ्रम है जिसे मिथ्यादर्शन कहा जाता है। दर्शन का एक अर्थ मान्यता भी है इसलिए मिथ्यादर्शन का अर्थ मिथ्या मान्यता है । जहाँ अपने स्वरूप की मिथ्या मान्यता होती है वहाँ जीव को अपने स्वरूप का मिथ्याज्ञान होता है और जहाँ मिथ्याज्ञान होता है वहाँ चारित्र भी मिथ्या ही होता है, इस मिथ्या या खोटे चारित्र को मिथ्याचारित्र कहा जाता है । यदि अहिंसा,सत्य, अचौर्य ,ब्रह्मचर्य और परिग्रह त्याग, मिथ्या दर्शन सहित हों तो वह संसार में दीर्घकाल तक परिभ्रमणकारी दोषों को उत्पन्न करते हैं, जैसे-विषयुक्त औषधि से लाभ नहीं हानि ही होती है। विशेष यह है कि धर्मपरिणत जीव को शुभोपयोग भी हेय है, त्याज्य है क्योंकि वह बन्ध का कारण है। ऐसा श्रद्धान प्रारंभ से ही न होने पर आस्रव बंध तत्व की सत्य श्रद्धा नहीं होती; अत: अज्ञानी जीव बंध को संवर रूप मानते हैं, शुभभाव को हितकर मानते हैं। जो गुणस्थान के अनुसार यथायोग्य साधकभाव, बाधकभाव, और निमित्तों को यथार्थतया न जाने, उसे मिथ्याज्ञान होता है जिसे निगोदगामी कहा है। जिनवाणी में नय अपेक्षा कथन करते हुए व्यवहार नय को निश्चय नय का सहायक (हस्तावलंबन रूप) कहा है किन्तु शुभोपयोग बन्ध का ही कारण है अत: उसका फल संसार ही है। निश्चय नय भूतार्थ है सत्यार्थ है जिसके आचरण से सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होती है; अत: यहाँ निश्चय नय की प्रधानता से कथन किया गया है। निश्चय नय के ज्ञानाभाव में जीव जब तक व्यवहार में मग्न रहता है तब तक आत्मा का ज्ञान,श्रद्धान रूप निश्चय सम्यक्त्व नहीं हो सकता। मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र केभाव जीव को निगोदका पात्र बनाते हैं। इस दुःख स्वरूप संसार का मूल कारण मिथ्यादर्शन है । जो कोई मोक्ष के सुख को चाहता है उसे मिथ्यात्व का त्याग करना चाहिए। मिथ्याज्ञान के अहंकारी व्यक्ति मिथ्या मूढ भाव से मोहित होकर आत्मा के सत्स्वरूप तक नहीं पहुंच पाते हैं। ९. मिथ्या संजम, मिथ्यातप, मिथ्यापरिने : तीन भाव गाथा-१७ मिथ्या संजमं क्रित्वा,तव परिनै मिथ्या संजुतं । सुद्ध तत्वं न पस्यंते, मिथ्या दल निगोदयं ॥ अन्वयार्थ- (मिथ्या संजमं क्रित्वा) मिथ्यात्व सहित संयम का पालन करता है (तब परिनै मिथ्या संजुतं ) तथा मिथ्या तप और मिथ्या परिणमन में लीन रहता है (सुद्ध तत्वं न पस्यंते) शुद्ध आत्मतत्व का जो अनुभव नहीं करते हैं (मिथ्या दल निगोदयं) यह तीनों मिथ्या संजम, मिथ्या तप, मिथ्या परिणमन निगोद ले जाने वाले हैं।
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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