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________________ श्री त्रिभंगीसार जी २८ जैसा न हो वैसा मानना, ११. पर से लाभ-हानि होती है ऐसी मान्यता, १२. विपरीत अभिप्राय, १३. ऐसी मान्यता कि जीव शरीर की क्रिया कर सकता है, १४. निमित्ताधीन दृष्टि, १५. शुभाशुभ भाव का स्वामित्व । मिथ्यात्व के दो भेद हैं- अग्रहीत मिथ्यात्व और ग्रहीत मिध्यात्व । अग्रहीत मिथ्यात्व अनादि कालीन है। ऐसी मान्यता रखना कि - "शरीर ही मैं हूँ तथा मैं पर द्रव्य का कुछ कर सकता हूँ या शुभ विकल्प से आत्मा को लाभ है, यह अनादि का मिथ्यात्व है। " संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्यादि पर्याय में जन्म लेने के बाद पर उपदेश के निमित्त से जो अतत्व श्रद्धान करता है अर्थात् लोक मूढता में फँसता है, वह ग्रहीत मिथ्यात्व है । ग्रहीत मिथ्यात्व के पाँच भेद हैं- एकांत मिथ्यात्व, विपरीत मिथ्यात्व, संशय मिध्यात्व, विनय मिथ्यात्व, अज्ञान मिथ्यात्व । सम्य मिध्यात्व - जिस कर्म के उदय से जीव के न तो केवल सम्यक्त्व रूप परिणाम हों और न ही केवल मिथ्यात्व रूप परिणाम हों, दोनों मिले हुए हों, उसको सम्यक्मिथ्यात्व कहते हैं । अन्य सर्वघाति प्रकृतियों से विलक्षण जात्यंतर सर्वघाती सम्यक्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से केवल सम्यक्रूप या मिथ्यात्व रूप परिणाम न होकर जो मिश्र रूप परिणाम होता है उसको तीसरा मिश्र गुणस्थान कहते हैं। सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व-जिस कर्म के उदय से आत्मा के सम्यक्दर्शन में चल, मलिन, अगाढ़ दोष उत्पन्न हों। इस कर्म के उदय से सम्यग्दर्शन का घात नहीं होता । यह चल, मलिन, अगाद दोष भी अत्यंत सूक्ष्म रूप दोष हैं। यह सातवें गुणस्थान तक होते हैं। मिथ्यात्व महापाप है । इस मिथ्यात्व मय भाव से जीव निगोद चला जाता है; अतएव कर्मों के आसव से बचने के लिए इन तीनों मिथ्या भावों का त्याग कर यथार्थ तत्व का श्रद्धान करना चाहिए। संसार का मूल मिध्यात्व है और मिथ्यात्व का अभाव किए बिना अन्य अनेक उपाय करने पर भी मोक्ष या मोक्षमार्ग नहीं होता; इसलिए सबसे पहले यथार्थ उपयोग के द्वारा सर्व प्रकार से उद्यम करके इस मिथ्यात्व का सर्वथा नाश करना ही योग्य है । गाथा - १५ कोई आत्मा जड़कर्म की अवस्था और शरीरादि की अवस्था को कर्ता नहीं है, उसे अपना कर्त्तव्य नहीं मानता है, तन्मय बुद्धिपूर्वक परिणमन नहीं करता है किन्तु मात्र ज्ञाता है अर्थात् तटस्थ रहता हुआ, साक्षी रूप से ज्ञाता है; वह आत्मा ज्ञानी है । ७. मिथ्यादेव, मिथ्यागुरु, मिथ्या धर्म: तीन भाव गाथा - १५ मिथ्यादेव गुरुं धर्म, अन्रितं व्रित उच्यते । असत्यं असास्वतं प्रोक्तं, त्रिभंगी निगोयं दलं ॥ अन्वयार्थ - (मिथ्यादेव गुरुं धर्मं ) मिथ्यादेव को, मिथ्यागुरु को, मिथ्या धर्म को (अनि व्रित उच्यते) जो असत्य हैं उनको सत्य कहता है (असत्यं असास्वतं प्रोक्तं ) जिन्हें झूठे, क्षणभंगुर और नाशवान कहा गया है (त्रिभंगी निगोयं दलं) इन तीनों को मानने वाला निगोद का पात्र होता है। २९ विशेषार्थ - मिथ्यादेव, गुरु, धर्म वे हैं जिनमें देवपना, गुरूपना, धर्मपना होता ही नहीं है। जैसे - जल, वायु, अग्नि, समुद्र, पर्वत, नदी, वृक्ष, चित्रलेप, मिट्टी-पाषाण आदि धातुओं द्वारा निर्मित आडम्बर युक्त मूर्ति को देव मान लेना। ऐसे मिथ्यादेवों की पूजा करने की प्रेरणा देने वाले मिथ्यागुरु होते हैं जो पाप प्रपंच में रत रहते हैं, ऐसे मिथ्यागुरुओं द्वारा बनाये या बताए जा रहे मार्ग पर चलकर मिथ्यादेवों को मानना, उनकी पूजा-अर्चना करना मिथ्या धर्म है । सत्य तो यह है कि ऐसी मिथ्या मान्यता संसार में व्याप्त है । जगत में मिथ्यात्व अज्ञान ऐसा ही है कि जल को पूजेंगे तो जलवर्षा होगी, अग्नि को पूजेंगे तो भला होगा, वृक्ष को पूजेंगे तो सौभाग्य होगा, पुत्रादि की प्राप्ति होगी । संसारी प्राणियों को सांसारिक सुख की कामना होती है तथा वे रोग-वियोगादि दुःखों से बचना चाहते हैं, मिथ्यागुरु अपने स्वार्थ साधन के लिए धन आदि के लोभ से भक्तों को उपदेश देते हैं कि यदि इनको पूजोगे तो दुःखों से छूट जाओगे । भयभीत प्राणी उनके उपदेशों को मान कर ऐसे मिथ्या देवों की आराधना करके अपनी शक्ति, धन व जीवन का दुरुपयोग करते हैं। मिथ्यादेव, गुरु, धर्म की श्रद्धा करने से सच्चे देव-गुरु, धर्म का श्रद्धान
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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