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________________ ११ गाथा-५ श्री त्रिभंगीसार जी १० होते हैं-निरूपक्रम और सोपक्रम। निरूपक्रम - आयु के प्रमाण में भुज्यमान आयु में से प्रति समय समान निषेक निरित होते हैं, इस प्रकार की आयु निरूपक्रम है अर्थात् अपवर्तन रहित है। सोपक्रम- जिस आयुकर्म के भोगने में पहले तो समय-समय में समान निषेक निर्जरित होते हैं किन्तु उसके अन्तिम (समय) भाग में बहुत से निषेक एक साथ निरित हो जायें इस प्रकार की आयु सोपक्रम कहलाती है। आयुकर्म के बन्ध में ऐसी विचित्रता है कि जिसके निरूपक्रम आयु का उदय हो उसके समय-समय पर समान निर्जरा होती है इसलिए वह उदय कहलाता है। सोपक्रम आयु वाले के पहले अमुक समय तो उपर्युक्त प्रकार से ही निर्जरा होती है तब उसे उदय कहते हैं; परंतु अन्तिमम समय अन्तर्मुहर्त में सभी निषेक एक साथ निर्जरित होते हैं इसलिए उसे उदीरणा कहते हैं। वास्तव में किसी की आयु बढ़ती या घटती नहीं है परन्तु निरूपक्रम आयु का सोपक्रम आयु से अन्तर बताने के लिए सोपक्रम आयु वाले जीव की अकालमृत्यु हुई, ऐसा व्यवहार में कहा जाता है। सोपक्रम कदलीघात अर्थात् वर्तमान के लिए अपवर्तन होने वाली आयु वाले के बाह्य में विष, वेदना, रक्तक्षय ,भय, शस्त्राघात, श्वासावरोध, अग्नि, जल, सर्प, अजीर्ण भोजन, वज्रपात, सूली, हिंसक जीव, तीव्र भूख या प्यास आदि निमित्त होते हैं। आयु का घात दो प्रकार से होता है-अपवर्तन और कदलीघात। अपवर्तन घात - बध्यमान आयु का घटना, जैसे- किसी मनुष्य ने अपने शुभ परिणामों से अधिक समय की देव आयु बांध ली, इसके पश्चात् उसी भव में संक्लेश परिणाम से उस आयु की स्थिति का घात किया, तो कम समय की देव आयु मिली; अथवा राजा श्रेणिक ने सातवें नरक की आयु का बन्ध किया था उस भव में भगवान महावीर के समवशरण में परिणामों की विशुद्धि से वह पहले नरक की आयु रह गई ,यह आयुबंध जीव घातायुष्क अपवर्तन घात कहलाता है। कदलीघात-भुज्यमान (भोगने में आने वाली) आयु का घटना कदलीघात है जैसे अकाल मृत्यु आदि । देव और नरक आयु में कदलीघात नहीं होता। सभी कर्मों का राजा मोहनीय कर्म है, इसकी सत्ता के आधार पर ही समस्त कर्मों का परिणमन होता है; परन्तु जीव को संसार में रोकने वाला प्रमुख आयुकर्म है। तीर्थंकरों को भी एक समय पूर्व मोक्ष नहीं जाने देता । आयुकर्म जीव के आंतरिक परिणाम लेश्या से बंधता है। प्रश्न-हमें यह कैसे पता लगेगा कि हमारी आयु कितनी है और आयुबन्ध का त्रिभाग कब आयेगा? समाधान - यह अवधिज्ञानी या केवलज्ञानी के ज्ञान का विषय है। इसका जीव को न तो पता लगता है और न ही लगाना चाहिए। यदि दृष्टि का परिवर्तन हुआ है, मुक्ति की भावना है तो कर्मासव का निरोध करना चाहिए और हमेशा स्वस्थ सावधान अपने में लीन रहना चाहिए। आयुबंध तो संसार का ही कारण है। प्रश्न -आयुबन्ध से बचने के लिए क्या करें? समाधान- इसके समाधान में श्री गुरु तारण स्वामी आगे की गाथा कहते हैं गाथा-५ त्रिभंगी प्रवेसं प्रोक्तं,समयादि त्रितिय स्तितं । भव्यात्मा चिंतनं भावं, सुद्धात्मा सुद्धं परं । अन्वयार्थ-(त्रिभंगी प्रवेसं प्रोक्तं )त्रिभंगी द्वारा आयुबन्ध का स्वरूप कहा गया है (समयादि त्रितिय स्तितं ) समयादि का अर्थ दोनों पक्ष से है, उस समय के त्रिभाग में स्थित रहना, आयुबन्ध का कारण है और अपने आत्मस्वरूप के सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थित रहना, आयुबन्ध से मुक्त होना है (भव्यात्मा चिंतनं भावं)भव्य जीव को इस बात का स्वयं विचार करना चाहिए (सुद्धात्मा सुद्धं परं) अपना शुद्धात्म स्वरूप तो परम शुद्ध है। विशेषार्थ- शुभभाव और अशुभभाव दोनों कषाय हैं, जिनसे कर्मबन्ध होता है इसलिए यह संसार के ही कारण हैं, शुभ भाव बढ़ते-बढ़ते उससे शुद्ध भाव नहीं हो सकता। शुद्ध के अभेद आलम्बन पूर्वक अर्थात् “मैं ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ परम पारिणामिक मात्र परम शुद्ध चेतन सत्ता हूँ।" इस स्थिति में रहने पर सब कर्मासव आयुबन्ध आदि से बचा जा सकता है। जितने अंश में शुद्धता प्रगट होती है उतने अंश में धर्म है, यही मुक्ति मार्ग है। शुभ-अशुभ भाव से कर्मासव,कर्मबन्ध होता है, ऐसा विचार भव्य जीव को करना चाहिए और कर्मासव के कारणों से बचकर अपने शुद्धात्मा
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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