SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री त्रिभंगीसार जी होती है। आयु बंध बदलता नहीं है। आयु के बन्ध करने पर जीवों के परिणामों के निमित्त से उदय • प्राप्त आयु का अपवर्तन घात भी होता है। प्रश्न - आयुबन्ध और गति बन्ध में क्या भेद है ? समाधान - आयुबन्ध - आठ द्रव्य कर्म के भेद में आयु कर्म है; इसलिये यह आयुकर्म का ही बन्ध होता है। आयुकर्म के भी चार भेद हैं-नरक, तिर्यंच, देव, मनुष्य । गति द्रव्य कर्म के एक भेद, नामकर्म की गति नाम की प्रकृति है इसके भी चार भेद हैं-नरक, तिर्यंच, देव, मनुष्य; परंतु यह प्रकृति है जिसके अनुसार शरीरादि की रचना होती है। यह परिणामों के अनुसार बदलती भी रहती है । आयुकर्म बदलता नहीं है । प्रश्न - आयु कर्म का बंध लेश्या से ही क्यों होता है ? शारीरिक क्रिया भाव आदि के अनुसार क्यों नहीं होता है ? समाधान शारीरिक क्रिया भाव आदि के अनुसार शेष सात कर्मों का आम्रव बंध होता है । आयु कर्म की विशेषता यह है कि आयुबन्ध हुए बिना जीव एक आयु पूर्ण होने के पश्चात् कहाँ जाएगा ? दूसरे भव में जाने के पूर्व उसका आयुबंध होना आवश्यक है । यह लेश्या के आधार पर इसलिए होता है क्योंकि नरक - निगोदादि के जीवों की क्रिया और भाव तो अवतव्य हैं, वहाँ तो लेश्या के आधार पर ही आयुबन्ध होता है; इसलिए आयुबन्ध का संबंध लेश्या से ही है । प्रश्न - आयु का त्रिभाग और आठ अपकर्षण काल का क्या विधान है? समाधान - इस प्रश्न के समाधान में श्री गुरु महाराज आगे की गाथा कहते हैं - गाथा - ३, ४ आयुयं जिनं उक्तं वर्ष षष्टानि निस्चयं । भव्यात्मा हृदये चिंते, त्रिभंगी दल स्मृतं ॥ तस्यास्ति त्रिविधिं क्रित्वा, दसास्ति त्रितिय उच्यते । मुहूर्तं जिनं प्रोक्तं, समयादि त्रितिय स्तितं ॥ अन्वयार्थ - (आयुयं जिनं उक्तं ) जिनेन्द्र भगवान ने आयुबंध का जो काल कहा है (वर्ष षष्टानि निस्चयं) यदि किसी की आयु साठ वर्षों की निश्चय की जावे (भव्यात्मा हृदये चिंते) भव्यजीव इसके संबंध में मन में विचार करें (त्रिभंगी दल स्मृतं) इसके त्रिभाग का समय अपनी स्मृति में रखें। (तस्यास्ति त्रिविधिं क्रित्वा ) इस प्रकार त्रिभाग करके (दसास्ति त्रितिय ९ गाथा-३, ४ उच्यते) इसको आठ अपकर्षण काल की त्रिभंगी कहते हैं (मुहूर्तं जिनं प्रोक्तं) और जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि इन त्रिभागों में आयुबंध न होवे तो आयु पूर्ण होने के अन्तर्मुहूर्त पहले अवश्य ही आयुबन्ध होता है (समयादि त्रितिय स्तितं ) इसलिए आत्मा को हमेशा सावधान, अपने रत्नत्रय स्वरूप की साधना में रत रहना चाहिए। विशेषार्थ - आयुबन्ध का विधान जिनेन्द्र परमात्मा के कहे अनुसार होता है । कर्मभूमि के मनुष्य एवं तिर्यंच की आयु के बन्ध की रीति यह है कि जितनी आयु हो उसका तीसरा भाग शेष रहने पर एक अन्तर्मुहूर्त के लिए आगामी आयु के बन्ध का काल आता है । यदि उसमें आयुबन्ध न हुआ हो तो शेष आयु के त्रिभाग पर फिर आयुबन्ध का समय आता है और इस प्रकार आठ बार ऐसा त्रिभाग काल आता है। इसमें आयुबन्ध हो गया तो ठीक वरना मृत्यु के अन्तर्मुहूर्त पहले आयुबन्ध अवश्य होता है, तब ही यह जीव दूसरी पर्याय में जाता है। जो मोक्षगामी जीव होते हैं उनका आयुबन्ध नहीं होता, आयुबन्ध होने से संसार में जन्म-मरण करना पड़ता है; इसलिए जिनेन्द्र परमात्मा कहते हैं कि हमेशा अपने शुद्धात्म स्वरूप का स्मरण रखना चाहिए । आयु साठ वर्ष होने पर आठ अपकर्षण काल का विधान निम्न प्रकार से आयेगा पहला त्रिभाग दूसरा त्रिभाग तीसरा त्रिभाग चौथा त्रिभाग पांचवाँ त्रिभाग छठवाँ त्रिभाग २० वर्ष शेष रहने पर ६ वर्ष ८ माह शेष रहने पर २ वर्ष २ माह २० दिन शेष रहने पर सातवाँ त्रिभाग आठवाँ त्रिभाग ८ माह २६ दिन १६ घण्टे शेष रहने पर २ माह २८ दिन २१ घण्टे २० मिनिट शेष रहने पर २९ दिन १५ घण्टे ६ मिनिट ४० सेकेण्ड शेष रहने पर ९ दिन २१ घण्टे २ मिनिट १३ सेकेण्ड शेष रहने पर ३ दिन ७ घण्टे ४४ सेकेण्ड शेष रहने पर । यदि आठों त्रिभाग काल में आयु कर्म न बंधे तो मरण के अन्तर्मुहूर्त पहले अवश्य ही आयु कर्म बंधता है। एक त्रिभाग में आयु बंध हो जाने पर आगे के भागों आयु बंध तो वही रहेगा परन्तु स्थिति कम या अधिक हो सकती है। में आयु कर्म मीमांसा - भुज्यमान (भोगी जाने वाली) आयु कर्म के रजकण दो प्रकार के
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy