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________________ श्री त्रिभंगीसार जी समाधान - कर्मास्रव का निरोध कब और कैसे होता है ? यह जानने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि कर्मास्रव कहाँ तक और कैसे होता है ? वस्तुत: मिथ्यात्व गुणस्थान में संसारी जीव को निरंतर कर्मास्रव और बन्ध होता है । जीव की पर पर्याय की तरफदृष्टि होना ही कर्मासव है। आत्मा के अनन्त गुणों में से एक गुण योग है यह अनुजीवी गुण है। इस गुण की पर्याय में दो भेद होते हैं - १. परिस्पंदन रूप अर्थात् आत्म प्रदेशों के कंपन रूप। २. आत्म प्रदेशों की निश्चलता रूप-निष्कंप रूप। प्रथम, योग गुण की पर्याय अशुद्ध होती है और दूसरी, योग गुण की शुद्ध पर्याय होती है। योग गुण की अशुद्ध पर्याय को योग कहा है जिससे कर्मास्रव होता है। इसमें मन, वचन, काय का निमित्त सहकारीपना होने से योग के १५ भेद हो जाते हैं। इनमें जीव का रत रहना अथवा राग-द्वेष रूप रहना कषाय है। योग से कर्मास्रव होता है और कषाय से कर्मों का बन्ध होता है। चौथे गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक कर्मास्रव और बंध होता है, जिसे साम्परायिक आस्रव कहते हैं। ग्यारहवें गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान तक र्यापथ आस्रव होता है, वहाँ कषाय न होने से स्थिति और अनुभाग बंध नहीं होता, शेष प्रकृति और प्रदेश बंध, कषाय का अभाव होने से सहज निकलते चले जाते हैं। ___जब तक जीव संसार में शरीरादि संयोग में है तब तक कर्मोदय का और जीव के भाव का निमित्त-नैमित्तिक सम्बंध है। अज्ञान-मिथ्यात्व दशा में तो वह एक रूप ही रहता है, कर्मादि से भिन्नत्व का बोध ही नहीं है। भेदज्ञान पूर्वक सम्यग्दर्शन होने पर भिन्नत्व भासित होता है। चौथे गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक योग और कषाय के उदयानुसार कर्मास्रव बंध होता गाथा-२ चेयन रूब संजुत्तं, गलियं विलयं ति कम्म बंधानं ॥ ॥श्री कमल बत्तीसी गाथा-६॥ कर्मों का स्वभाव नाशवान क्षय होने का है। दृष्टि के सद्भाव पर कर्मों का आसव और क्षय होता है अर्थात् दृष्टि(उपयोग) बाहर, पर पर्याय की तरफ हो तो कर्मों का आसव होता है और दृष्टि स्वभाव पर है तो कर्मों का क्षय होता है। अपने चैतन्य स्वभाव में लीन होने पर संपूर्ण कर्म गल जाते हैं। कर्मासव का निरोध अपने शुद्ध स्वभाव में लीन रहने पर होता है। विशेष-आयुकर्म के अतिरिक्त अन्य सात कर्मों का आस्रव बंध प्रति समय हुआ करता है । आयु कर्म का बन्ध लेश्या के अनुसार होता है। प्रश्न -यह कर्मों का आसव बन्ध दसवें गुणस्थान तक किस प्रकार होता है ? समाधान - आत्मा के प्रदेशों का परिस्पंदन रूप जो योग है वह क्रिया है। इसमें मन, वचन, काय निमित्त होते हैं, यह क्रिया सकषाय योग से दसवें गुणस्थान तक होती है। पौद्गलिक मन, वचन, काय की कोई भी क्रिया आत्मा की नहीं है और न ही आत्मा को लाभदायक या हानिकारक है। जब आत्मा सकषाय योग रूप से परिणमे और नवीन कर्मों का आस्रव हो तब आत्मा का सकषाय योग उन पुद्गल आस्रव में निमित्त है और पुद्गल स्वयं उस आसव का उपादान कारण है । भावासव का उपादान कारण आत्मा की उस अवस्था की योग्यता है और निमित्त पूर्वबद्ध कर्मों का उदय है। प्रश्न -यह आयुबन्ध कब और कैसे होता है ? समाधान - इस प्रश्न के समाधान में श्री गुरु तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज आगे गाथा कहते हैं - गाथा-२ त्रिभंगी दल असमूह, जिन उक्तं जिनागमं । आयु त्रिभागं कृत्वा, त्रिभंगी त्रिति अस्तितं । अन्ववार्य- (त्रिभंगी दल असमूह) त्रिभंगी अर्थात् तीन-तीन भेद (भंगों )के अनेक समूह हैं (जिन उक्तं जिनागम) जिनेन्द्र कथित जिनवाणी में कहे हैं (आयु त्रिभागं कृत्वा) आयु का त्रिभाग किया जाता है अर्थात् आयु का बंध आयु के त्रिभाग में होता है (त्रिभंगी नो इनसे ऊपर उठने पर ही कर्मासव का निरोध और संसार से मुक्ति होती है। मिथ्यादृष्टि संसारी जीव को तो निरंतर कर्मों का आसव-बन्ध होता है। सम्यग्दर्शन होने पर चौथे गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक जितने अंश में वीतरागता होती है उतने अंश में आस्रव और बन्ध नहीं होते तथा जितने अंश में राग-द्वेष होता है, उतने अंश में आस्रव और बन्ध होता है। कम्म सहावं विपनं, उत्पत्ति षिपिय दिस्टि सभावं ।
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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