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________________ गाथा-१ श्री त्रिभंगीसार जी गुरु नमस्कार करके कहते हैं कि - संसार चक्र कर्मासव से ही चलता है। इन कर्मों के आसव का निरोध करने के लिए, संसार के जन्म-मरण के चक्रसे छूटने के लिए मैं यह त्रिभंगीसार ग्रन्थ कहता हूँ। इसमें तीन-तीन पदों के समूह से कर्मास्रव और संवर- निर्जरा का स्वरूप बताया गया है। प्रश्न -यहाँ भगवान महावीर स्वामी को नमस्कार किया, जिन्होंने संसार के भय का नाश कर दिया, तो यह संसार का भय है क्या ? समाधान - वस्तुत: मृत्यु का भय जिसे हम कहते हैं, वह मृत्यु का न होकर जीवन के खोने का डर है जो ज्ञात है उसके खोने का भय है। जो ज्ञात है उससे हमारा तादात्म्य है, वही हमारा होना बन गया है; वही हमारी सत्ता बन गई है। मेरा शरीर, मेरी संपत्ति, मेरी प्रतिष्ठा, मेरे संबंध, मेरे संस्कार, मेरे विश्वास, मेरे विचार यही मेरे'-मैं के कारण बन गये हैं, यही मैं हो गया हूँ। मृत्यु इस 'मैं' को छीन लेगी, यही भय है। प्रश्न -इस भय से छूटने का उपाय क्या है? समाधान - स्व-पर का भेदज्ञान ही इस भय से छूटने का एकमात्र उपाय है। इस सत्य को जानने के लिए कोई क्रिया, कोई उपाय नहीं करना है, केवल उन तथ्यों को जानना है, उनके प्रति जागना है जिन्हें मैं अपना समझता हूँ कि-यह "मैं" हूँ जिनसे मेरा तादात्म्य है। भेद विज्ञान का जागरण, तादात्म्य तोड़ देता है, स्व और पर को पृथक् कर देता है। जहाँ यह बोध जाग जाता है कि "इस शरीरादि से भिन्न मैं एक अखण्ड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं हैं।" वहीं सारा भय समाप्त हो जाता है। स्व-पर का तादात्म्य भय है, स्व-पर पृथक् बोध भय मुक्ति है, अभयपना है। प्रश्न- मृत्यु क्या है? समाधान- मृत्यु केवल देह परिवर्तन है । वर्तमान जीवन में प्राप्त संयोग का छूट जाना ही मृत्यु है । मर्त्य देह में जो बैठा है, वह मर्त्य नहीं है। मृत्यु की परिधि है परन्तु केन्द्र पर मृत्यु नहीं है। वह जो देख रहा है, देह और मन का दृष्टा-चेतनतत्व, वह जानता है कि मैं देह और मन से पृथक् हूँ। वह जान रहा है कि मेरी मृत्यु नहीं है। सत्य तो यह है कि मृत्यु केवल देह परिवर्तन है। मैं नित्य हूँ, सभी मृत्यु को पार करके भी मैं अमृत, अक्षय, अविनाशी, अशेष रह जाता हूँ; पर यह बोध अचेतन है, इसे चेतना बना लेना, अनुभव में ले लेना ही मुक्त हो जाना है। यही सम्यक्दर्शन, मुक्तिमार्ग है। प्रश्न-संसार में जन्म-मरण का कारण क्या है? समाधान- जीव का अज्ञान भाव अर्थात् अपने स्वरूप को न जानना और यह शरीर ही मैं हूँ, यह शरीरादि मेरे हैं, मैं इन सबका कर्ता हैं। इसी अज्ञान भाव से पर में मोह, राग-द्वेष होता है जिससे कर्मों का आसव बन्ध होता है और संसार में जन्म-मरण का चक्र चलता है। प्रश्न-इस जन्म-मरण के चक्र से छूटने का उपाय क्या है? समाधान - सत्य वस्तु स्वरूप को जान लेना तथा उस रूप ही रहना, जन्म-मरण के चक्र से छूटने का उपाय है। वस्तु स्वरूप-मैं ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ। यह एक-एक समय की चलने वाली पर्याय और जगत का त्रिकालवर्ती परिणमन क्रमबद्ध निश्चित अटल है, इससे मेरा कोई संबंध नहीं है। ऐसा अनुभूति युत निर्णय स्वीकार करने वाला ज्ञानी-ज्ञायक है। अब उस रूप रहने के लिए पाप-विषय-कषायों से हटना आवश्यक है। भगवान महावीर की दिव्य देशना में जो वस्तु स्वरूप आया है वह निश्चय व्यवहार से समन्वित है। धर्म का स्वरूप अनेकान्तमयी है, इस तथ्य को यथार्थ जानने वाला और सही पालन करने वाला ही जिनेन्द्र का अनुयायी, सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी, मुक्तिमार्ग का पथिक है। प्रश्न - जब बस्तु स्वरूप जान लिया, ज्ञानी बायक हो गया फिर पाप विषय-कषायों से हटने की क्या आवश्यकता है, यह तो पर्यायी परिणमन है जो क्रमबद्ध निश्चित है? समाधान - जैन दर्शन की यही विशेषता है जो निश्चयाभासी, व्यवहाराभासी, उभयाभासी होने से बचाती है। अभी वस्तु स्वरूप जैसा जाना है वैसा हुआ नहीं है। द्रव्य स्वभाव से तो वस्तु वैसी ही है पर अभी पर्याय में अशुद्धि है। वर्तमान में जीव का और पुद्गल कर्मों का निमित्त-नैमित्तिक संबंध है । दोनों द्रव्य एक क्षेत्रावगाह मिले हुए हैं। जीव और पुद्गल का अपने-अपने स्वरूप में परिपूर्ण शुद्ध हो जाना ही मोक्ष है। इसके लिए भेदज्ञान आवश्यक है; तथा पाप-विषय-कषाय से हटने पर ही स्वरूप की साधना हो सकती है। जब तक विषयों में रत रहेंगे तब तक पर-पर्याय पर ही दृष्टि रहेगी जिससे कर्मों का आसव-बन्ध होता है। पापों में रत रहने वाला अब्रती, विषयों में रत रहने वाला असंयमी और कषायों में रत रहने वाला रागी होता है, इसलिए व्रत-संयम-तप आवश्यक हैं। वीतरागी होने पर ही कर्मों से छुटकारा होता है। प्रश्न -यह कर्मासव का निरोध कब और कैसे होता है?
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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