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________________ O ७ श्री श्रावकाचार जी गाथा-CUO कब? क्योंकि कुगुरुस्य गुरुं प्रोक्तं, मिथ्या रागादि संजुतं । जो जाणदि अरहंत, दव्यत्त गुणत्त पज्जयत्तेहि। कुन्यानं प्रोक्तं लोके,कुलिंगी असुह भावना ॥५॥ सो जाणदि अप्पाणं,मोहो खलु जादितस्स लयं ॥ अन्वयार्थ- (मिथ्या रागादि संजुतं) मिथ्यात्व, राग-द्वेष सहित हैं (कुन्यानं (प्रवचनसार गाथा-८०) जो अरिहंत को द्रव्यत्व, गुणत्व, पर्यायत्व से जानता है वह अपनी आत्मा को प्रोक्तं लोके) संसार में सब लोगों को कुज्ञान का अधर्म का उपदेश देते हैं (कुलिंगी असुह भावना) कुलिंग को धारण कर झूठा भेष बनाकर अशुभ भावों में रत रहते हैं । जानता है और उसका मोह नाश को प्राप्त होता है। २ (कुगुरुस्य गुरुं प्रोक्तं) ऐसे कुगुरु अपने आपको गुरु कहते हैं। सत्संग और सद्गुरू का समागमतोतब कहलायेगा जब हम जागजायें, अपनी ओर दृष्टि हो जाये और संसार से विरक्तता आजाये उसका नाम सद्गुरू का सत्संग । है विशेषार्थ- यहाँ कुगुरु का स्वरूप बताया जा रहा है कि जो गुरु नहीं है, है। हम नजागें अपनी ओर नदेखें,जो बताया जा रहा है उसे स्वीकार न करें, तो अनंत S जिनमें गुरुपना नहीं है, जो मिथ्यात्व और राग-द्वेष में लीन रहते हैं, संसारी जीवों काल बीत गया और अनंत काल बीत जायेगा । अनन्त सद्गुरू मिले और चले गये, को कुज्ञान और अधर्म की बातें कहते हैं। झूठा भेष बनाकर अशुभ भावों में रत रहते और चले जायेंगे। बात अपनी है अपनी ओर देखें। हैं और अपने आपको गुरु बताते हैं, वह सब कुगुरु हैं। उपदेश देने वाले को, धर्म यथार्थ में तो अपना अन्तरात्मा ही अपना सच्चा सद्गुरू है। जो हमेशा साथ में है। मार्ग पर चलने वालों को संसारी जीव गुरु कहते हैं। लौकिक कामनाओं की सिद्धि उसकी ओर देखें,उसकी सुनें तो अभी बेड़ा पार होजाये, बाहर पर का तो निमित्त कहने 2 के लिये मंत्र-तंत्र आदि पूजा आडम्बर फैलाने वालों को भी लोग गुरु कहते हैं। पर में आता है। सत्य तो स्वयं अपना सत्स्वरूप है। इसका सत्संग करें तो अभी कल्याण हो , गुरु का वास्तविक स्वरूप क्या है ? गुरु की क्या महिमा है ? संसारी जीव के लिये जाये। बाहर तो निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होने के कारण कहने में आता है तथा जैसा गुरु कितना महत्वपूर्ण है ? इन बातों का कोई विचार विवेक न करते हुए किसी भी कारण निमित्त होता है वैसा ही कार्य भी होता है यह सब व्यवहार की बातें हैं। हम 5 नाम रूप भेषधारी को गुरु मानना, उसकी बातों में लगना, उस पर विश्वास करना वर्तमान में जिस दशा, जिस भूमिका में बैठे हैं वहां स्वयं अपने आपको देखें और स्वयं का x सबसे बड़ा धोखा है, जो जीव को संसार में पतन का कारण है। जो अपने आपको गुरु निर्णय करें यही कार्यकारी है। १७ बताते हैं ,गुरु कहलवाते हैं, गुरु बनते हैं। अपने ज्ञान की या संयम तप की या अब यहां पुन: प्रश्न है कि सद्गुरू का स्वरूप तो बता दिया अब कुगुरु का 5 अपनी प्रभावना सिद्धि आदि की महंतता बताते हैं सबसे बड़े कुगुरु वही हैं; फिर वह स्वरूप और बताइये; क्योंकि धोखा तो यहीं हो जाता है। अभी हम अज्ञानी हैं, चाहे कोई भी भेष रूप धारी हो। किसी भी प्रलोभन किसी के भी जाल में फंस जाते हैं, यह सब जानने पर कम से गुरु का शाब्दिक अर्थ है भारी या बड़ा, जिसमें भारीपन, गम्भीरता हो कम सतर्क सावधान तो रहेंगे? 9 बड़ापन-बड़प्पन हो, विवेक हो ऐसे सच्चे ज्ञानी को ही गुरु कहते हैं। समाधान-जब तक पर पुद्गलादि संसार की तरफ दृष्टि रहेगी तब तक फंसने : मोक्षमार्ग प्रकाशक में इसी बात को कहा हैकी तो हमेशा ही संभावना है। सतर्कता सावधानी वरतो तो फिर कहना ही क्या है? जो जीव विषय-कषायादि अधर्म रूप तो परिणमित होते हैं और मानादिक रविवेक का जागरण ही मुक्ति का प्रथम सोपान है। इतना जानकर, समझकर इस पर से अपने को धर्मात्मा मनवाते हैं। धर्मात्मा के योग्य क्रिया नमस्कारादि कराते । विचार चिन्तन करने लगें क्योंकि सत्य-असत्य का, सच्चे-झूठे का, हित-अहित है अथवा किंचित् धर्म का कोई अंग धारण करके बड़े धर्मात्मा कहलाते हैं। बड़ेका निर्णय करना ही मूल्यवान है। यही तो मानवता की निशानी है और इसीसे सब कुछ धर्मात्मा योग्य क्रिया कराते हैं। इस प्रकार धर्म का आश्रय करके अपने को बड़ा होना है। सम्यक्दर्शन, धर्म, संयम, साधना और मुक्ति सब इसी पर आधारित है। मनवाते हैं, उन सबको कुगुरु जानना।धर्म पद्धति में तो विषय-कषायादि छूटने पर 2 सद्गुरू तारण स्वामी अब आगे कुगुरु का स्वरूप बता रहे हैं जैसे धर्म को धारण करे, वैसा ही अपना पद मानना योग्य है। A CHACROTION
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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