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________________ Wia puी आचकाचार जी गाथा-७६-७४ Oo कुगुरु कैसे होते हैं इसको और आगे बताते हैं सम्यक्दर्शन है ; इसलिये जो सम्यक्दर्शन से रहित हो उनकी वन्दना नहीं करना कुगुरुं राग संबंधं, मिथ्या दिस्टी च दिस्टितं । चाहिये। राग दोष मयं मिथ्या,इन्द्री इत्यादि सेवनं ॥७६॥ दसण मूलो धम्मो, उवइठो जिणवरेहिं सिस्साणं। त सोऊण सकण्णे,दसण हीणो णवदिव्यो॥२॥ मिथ्या समय मिथ्यं च, प्रकृति मिथ्या प्रकासये। जिनवर सर्वज्ञ देव ने अपने शिष्यों को उपदेश दिया है कि सम्यक्दर्शन ही सुद्ध दिस्टीन जानते , कुगुरु संग विवर्जितं ॥७७॥ धर्म का मूल है। बिना सम्यक्दर्शन अर्थात् निजशुद्धात्मानुभूति के धर्म होता ही नहीं अन्वयार्थ- (कुगुरुं राग संबंध) कुगुरु राग के सम्बन्ध से (मिथ्या दिस्टी च है; इसलिये हे विज्ञ पुरुषो! दर्शन हीन की वन्दना नहीं करना चाहिये, उनकी वंदना दिस्टितं) मिथ्यादृष्टि रहते हैं और शरीरादिपर कोही देखते हैं (राग दोष मयं मिथ्या), मत करो। क्योंकिहमेशा राग-द्वेषमय मिथ्या भावों में लगे रहते हैं (इन्द्री इत्यादि सेवनं) पांचों इन्द्रिय दसण भट्टा भट्टा, दसण भट्टस्स णस्थि णिव्वाणं। के विषयों के सेवन में रत रहते हैं। सिमंतिपरियभट्टा,दसण भट्ठाण सिमंति॥३॥ (मिथ्या समय मिथ्यं च )मिथ्यात्व, सम्यक मिथ्यात्व (प्रकति मिथ्या जो पुरुष दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे भ्रष्ट हैं। जो दर्शन से भ्रष्ट हैं उनको निर्वाण नहीं प्रकासये) तथा प्रकृति मिथ्यात्व का ही पोषण करते हैं (सुद्ध दिस्टी नजानते) शुद्ध होता; क्योंकि जो चारित्र से भ्रष्ट हैं वह तो कभी सुलट सकते हैं और मुक्ति प्राप्त दृष्टि को जानते ही नहीं हैं अर्थात् जिन्हें अपने आत्म स्वरुप की खबर ही नहीं है, कर सकते हैं, पर जोदर्शन से भ्रष्ट हैं वह कभी नहीं मुक्त हो सकते बगैर सम्यक्दर्शन (कुगुरु संग विवर्जितं) ऐसे कुगुरुओं का संग वर्जित है, नहीं करना चाहिये, दूर से ' के यह बाह्य वेष, साधुपद आदि कोई कार्यकारी नहीं है। इसलियेही छोड़ देना चाहिये। सम्मत्त सलिल पवहो, णिच्च हियए पवट्टए जस्स। विशेषार्थ- यहां कुगुरु का स्वरूप बतलाया जा रहा है कि कुगुरु कैसे कम्म वालुय वरणं, बन्धुच्चिय णासए तस्स ॥७॥ होते हैं। कुगुरु राग के संबंध से अर्थात् शरीराशक्ति के कारण मिथ्यादृष्टि रहते जिस पुरुष के हृदय में सम्यक्त्व रूपी जल का प्रवाह निरंतर प्रवर्तमान है हैं। शरीरादि पर को ही देखते हैं। शरीर की देखभाल संभाल खाने-पीने में ही लगे उसके कर्म रूपी रज का आवरण नहीं लगता तथा पूर्वकाल में जो कर्मबंध हुआ हो रहते हैं अर्थात् नाना प्रकार के व्यंजन पौष्टिक पदार्थ, रस, मलाई आदि खाने के वह भी नाश को प्राप्त होता है; इसलिये अपना भला चाहते हैं तोलिये ही लालायित रहते हैं। हमेशा राग-द्वेष मय मिथ्या भावों में लगे रहते हैं। जे देसणेसु भट्टा,णाणे भट्टा चरित्त भट्टाय। कषाय का वातावरण बैर-विरोध, ईर्ष्या, द्वेष करना-कराना ही जिनका काम रहता एदे भट्ट वि भट्टा,सेसपि जणं विणासंति ॥८॥ है। जो पांचों इन्द्रियों के विषयों के सेवन में हीरत रहते हैं। जो दर्शन से भ्रष्ट हैं, ज्ञान से भ्रष्ट हैं, चारित्र से भ्रष्ट हैं वे जीव भ्रष्ट से भी भ्रष्ट है। ऐसे कुगुरु मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व का ही उनका संग मत करो, क्योंकि वह अपना तो अहित आत्म घात कर ही रहे हैं: पर जो पोषण करते हैं अर्थात् इन्हीं भावों में स्वयं लगे रहते हैं तथा दूसरों को भी इन्हीं में जीव उनका उपदेश मानते हैं, संग करते हैं, उनका भी पतन, नाश हो जाता है। इस उलझाये रहते हैं। इनका ही उपदेश देते हैं,जो शुद्धदृष्टि को जानते ही नहीं हैं अर्थात् प्रकार कुगुरु का संग कदापि नहीं करना चाहिये, होवे तो छोड़ देना चाहिये । कुगुरु जिन्हें अपने आत्म स्वरूप की खबर ही नहीं है। जो सम्यक्दर्शन की बात करना, क्या करते हैं? इस बात को आगे कहते हैंसुनना भी पसंद नहीं करते, व्यर्थ चर्चा में लगे रहते हैं। ऐसे कुगुरुओं का संग वर्जित कुगुरुं कुन्यानं प्रोक्तं, सल्यं त्रि दोष संजुतं । है अर्थात् ऐसे कुगुरु का संग नहीं करना चाहिये, वैसा योग होवे तो दूर से ही छोड़ देना कसायं बर्धनं नित्यं, लोक मूहस्य मोहितं ।। ७८॥ चाहिये इसी बात को कुन्दकुन्दाचार्य दर्शन पाहुड़ में कहते हैं कि धर्म का मूल
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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