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________________ Our श्री बाचकाचार जी गाथा-७२, ४ का बीजारोपण सम्यक्दृष्टि के हो ही जाता है परन्तु यह इनको प्रयोग में लाने लगता जिन्हें संसार के दु:खों की पीड़ा का अनुभव है तथा जिन्हें संसारी जीवों के प्रति करुणा है। इसे देखकर यह स्पष्ट ज्ञान होता है कि यह स्वातन्त्र्य पथ का अद्वितीय पथिक बहती है और निज आत्म स्वभाव ही सच्चा धर्म है इसका सदुपदेश देते हैं। है। इसके इन गुणों के साथ समता, शान्ति, क्षमा, ज्ञान, आत्मीक शक्ति, आत्मीक . सम्यक्दर्शन, निजशुद्धात्म स्वरूप की महिमा बताते हैं। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान सुख आदि दूसरे गुणों का भी विकास होने लगता है; क्योंकि इन गुणों का मुख्य और सम्यक्चारित्र की एकता मात्र मोक्ष का मार्ग है इसके बिना कभी त्रिकाल मुक्ति हो ७ प्रतिबन्धक कर्म मोहनीय माना गया है। इसके दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय नहीं सकती। जो सत्य का स्वयं पालन करते हैं और सब जीवों को इसी का उपदेश इन दोनों प्रकार के मोहनीय कर्म का उपशम, क्षयोपशम या क्षय हो जाता है। देते हैं। जो स्वयं संसार से मुक्त हो ही रहे हैं और भव्य जीवों को भी उसी मुक्ति मार्ग __इस प्रकार सद्गुरू की यह विशेषतायें होती हैं। ऐसे गुरू ही स्वयं तरते हैं पर लगा रहे हैं वही सद्गुरू तारण तरण होते हैं,श्रीममलपाहुड जी ग्रंथ के गुरु दिप्त और भव्य जीवों को तारते हैं। वही गुरू तारण तरण हैं. इसी बात को आगे दो । गाथा में कहा हैगाथाओं में कहते हैं गुरु उवएसिउ गुपित रुइ, गुपित न्यान सहकार। तस्य गुनं गुरुस्चैव,तारनं तारकं पुनः। तारन तरन समर्थ मुनि,गुरु संसार निवार॥१॥ मान्यते सुख दिस्टिच,संसारे तारनं सदा॥७३॥ संसय सल्य विमुक्कु गुरु, भय विलय अभय जिन उत्तु । अभय न्यान सह गुपित रुई,न्यान विन्यान संजन्तु ॥२॥ जावत् सुद्ध गुरं मान्ये,तावत् गत विभ्रम। गुरू जाग्रत करता है। गुप्त आत्मा को अपने गुप्त ज्ञान से मिलाता है जो सल्यं निकंदनं जेन , तस्मै श्री गुरवे नमः ।। ७४॥ १ सद्गुरू (मुनि) स्वयं तर रहा है, वही दूसरों को तारने में समर्थ होता है। गुरु ही इस अन्वयार्थ-(तस्य गनं गरुस्चैव) ऐसे गणों के धारीजो सदगरू होते हैं (तारनं भव संसार जन्म-मरण के चक्कर, दुर्गतियों के दु:खों का निवारण करता है। क्योंकि तारकं पुन:) वह स्वयं तरते हैं और अन्य भव्य जीवों को तारते हैं (मान्यते सद्ध उसके ज्ञान में, अनुभव में सब है,उस सत्य को बताता है। दिस्टिच) जिनकी मान्यता में सम्यक्दर्शन ही (संसारे तारनं सदा) हमेशा संसार से गुरु स्वयं संशय और शल्यों से मुक्त होता है। आत्म स्वरूप का जागरण तारने वाला है। होने से उसके भय विला गये हैं। अभय होकर ज्ञान स्वरूपी अपने अरूपी गुप्त (जावत् सुद्ध गुरं मान्ये) जो कोई ऐसे सच्चे गुरु को मानते हैं ( तावत गत आत्मा को भेद विज्ञान से प्रत्यक्ष अनुभूति में ले लिया है तथा उसी में लीन रहते विभ्रमं) उनका विभ्रम-बहिरात्मपना बिला जाता है (सल्यं निकंदनंजेन) उनकीशल्यें हैं। ऐसे सद्गुरू के शरण और सत्संग से इस जीव का कल्याण होता है। बहिरात्मा भी छूट जाती हैं (तस्मै श्री गुरवे नम:) ऐसे श्री सद्गुरू को बारम्बार नमस्कार है। से अन्तरात्मा होता हुआ परमात्मा बनता है। विशेषार्थ- यहां उस प्रश्न का समापन है जो बहिरात्मा संसार के व्यामोह में ॐ 3 यहाँ कोई प्रश्न करे कि यदि सद्गुरू के योग और सत्संग से जीव का कल्याण फंसा कुदेव, अदेव आदि की पूजा करता है। मिथ्या मान्यता और मिथ्यात्व के जाल * होता है तो भगवान आदिनाथ के समवशरण में मारीचि का क्यों नहीं हुआ तथा में फंसा अपना अनन्त संसार बढ़ाता है, दुर्गतियों का कारण बनाता है। उससे छूटने ॐ भगवान महावीर के समवशरण में हम जैसे बहुत से जीव थे फिर हमारा कल्याण का क्या उपाय है ? इसका उत्तर था सद्गुरू की शरण गहें, उनका सत्संग करें तो 5 क्यों नहीं हुआ? उसका समाधान करते हैं कि भाई ! सत्संग किया ही नहीं तो कल्याण कैसे 9 इस माया जाल से छूट सकते हैं। होगा? सत्संग का अर्थ है सत्य का संग। जिस आत्म स्वरूप का उन्होंने उपदेशX सद्गुरू कैसे होते हैं? यह पूछे जाने पर यहां सद्गुरू का स्वरूप बताया है कि जो अपने रत्नत्रय स्वरूप निज शद्धात्मा की साधना में लीन रहते हैं। संसारी प्रपंच, दिया जो अनाद्यनिधन सत्य शाश्वत है। उस परमब्रह्म परमात्म स्वरूप निज आत्मा । विषय-कषाय, मोह, राग-द्वेष छोड़कर जो निज आत्म स्वभाव में संलग्न रहते हैं, की ओर तो देखा ही नहीं तो सत्संग कहां हुआ? तथा सदगुरू को भी पहिचाना र
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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