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________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-१६८ doo अनुभूति करते हैं, वह अन्तरात्मा हैं इसी बात को तारण स्वामी ने पूर्व में कहा है- है। विन्यानं जेवि जानते,अप्पा पर परपये। चारित खलु धम्मो-चारित्र ही धर्म है अर्थात् अपने स्वभाव में रहना ही धर्म परिचये अप्प सद्भाव,अन्तर आत्मा परषये ॥४९॥श्रावकाचार है। कोई क्रिया कर्म, व्यवहार चारित्र, संयम तप आदि धर्म नहीं है। जब जीव अपने धर्म के स्वरूप का वर्णन करते हुए मालारोहण की १६ वीं गाथा में कहा है- स्वभाव में रहता है तभी धर्म में है अर्थात् सुख शांति आनंद निराकुलता में है। अपने जे धर्म लीना गुन चेतनेत्वं,ते दुष्य हीना जिन सुद्ध दिस्टी। स्वभाव से बाहर विभाव में, पर में है तो वह अधर्म में है अर्थात् दुःख में है, आकुलता संप्रोषि तत्वं सोई न्यान रूप, ब्रजति मोयं विनमेक एत्वं ॥ १६॥ और संकल्प-विकल्प में है फिर भले ही वह पाप में हो या पुण्य में हो वह धर्म में नहीं जो अपने चैतन्य गुणधर्म में लीन होते हैं, वे समस्त दुःखों से मुक्त जिन शुद्ध है। धर्म तो एक मात्र अपने स्वभाव में रहना ही है। दृष्टि हैं, उन्होंने अपने ज्ञान स्वरूप में समस्त तत्वों को जान लिया है, वे एक क्षण में उत्तम क्षमा मार्दवार्जव सत्य शौच संयम तपस्त्यागाकिंचन्य ब्रह्मचर्याणि ही मोक्ष चले जाते हैं। धर्माः। यहाँ कोई प्रश्न करे कि धर्म का स्वरूप तो अनेक प्रकार से बताया है उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, जैसे-वत्थु सहावो धम्मो,दसण मूलो धम्मो, चारित्तं खलु धम्मो, अहिंसा परमो ब्रह्मचर्य ही धर्म है। यह स्वभाव की अपेक्षा दस भेद हैं,यह जीव के स्वभाव हैं, जो धर्मः । उत्तम क्षमा मार्दवार्जव सत्य शौच संयम तपस्त्यागाकिंचन्य ब्रह्मचर्याणि विभाव रूप होने से विषय-कषाय, पापादि कहलाते हैं। अपने स्वभाव में रहना ही धर्माः । आप यहाँ चेतना लक्षणो धर्मों कह रहे हैं फिर यह सब क्या है यह स्पष्ट धर्म है, इस अपेक्षा यह दस लक्षण धर्म कहे जाते हैं। मूल बात तो अपने स्वभाव में समझाइये? र रहने की है। उसका समाधान करते हैं कि भाई! बात जरा सूक्ष्मता से समझने की है। वत्थु अहिंसा परमो धर्म:- अहिंसा ही परम धर्म है। अहिंसा अर्थात् हिंसा न सहावो धम्मो-वस्तु का जो स्वभाव है वही धर्म है। जैसे-अग्नि में उष्णता, जल में होना, इसमें स्व व पर के, किसी के भी दस प्राणों में से किसी का घात न होना शीतलता, नमक में खारापन यह अनाद्यनिधन स्वभाव है यही इनका धर्म है। इसी अहिंसा है। परजीवों के प्रति दया, करुणा,प्रेम,उत्तम क्षमादि भाव रखना अहिंसा प्रकार जीव का चेतना लक्षण ही अनाद्यनिधन स्वभाव है। जो त्रिकालवर्ती रहे और है तथा अपने भावों में विकार अर्थात मोह, राग-द्वेषादि का न होना अहिंसा है। अव्याप्ति आदि दोषों से रहित हो वही स्वभाव धर्म माना जाता है। २ प्रयोजन यह है कि राग-द्वेषादि विकारी भावों का न होना, अपने स्वभाव में ही रहना दसण मूलो धम्मो-दर्शन ही धर्म का मूल है अर्थात् सम्यकुदर्शन निज अहिंसा है और यही परम धर्म है। धर्म और सत्य तो एक ही होता है और वह ब्रह्म स्वभाव की अनुभूति ही धर्म है। संसार में संख्या अपेक्षा छह द्रव्य हैं। वस्तु अपेक्षा ९ स्वरूप अनाद्यनिधन चेतना शक्ति है,जो प्रत्येक जीव आत्मा का अपना निज स्वभाव मूल दो द्रव्य हैं-जीव और अजीव तथा भेद अपेक्षा अनन्त हैं। अब यहाँ समझना है। जो इसे स्वीकार करता है वही सत्य को उपलब्ध होता है, मुक्ति पाता हैयह है कि चेतनता ज्ञान दर्शन जीव में ही होते हैं। अजीव में ज्ञान दर्शन चेतना होती इन सब परिभाषाओं का मूल आधार एक ही है - नहीं है ; तो निज स्वभाव की अनुभूति और वस्तु स्वभाव को जानने की क्षमता मात्र चेतना लण्यनो धर्मों,बेतयन्ति सदा दुधै। जीव में ही होती है तथा जीव भी अनन्त हैं तो यहाँ जिस जीव को अपने स्वभाव की 5 ध्यानस्य जलं सुद्ध,न्यानं अस्नान पंडिता॥९॥ पंडितपूजा अनुभूति अर्थात् दर्शन ज्ञान होता है, उसने ही सत्य धर्म को जाना वही सम्यक्दृष्टि चैतन्य लक्षण ही निज धर्म है। हे बुद्धिमानो! हमेशा इसका ही चिन्तवन करो, ज्ञानी हुआ। अपने स्वरूप का दर्शन अनुभव होना ही धर्म है। जिस जीव को अपने इसी के ध्यान रूपी शुद्ध जल में ज्ञानमयी स्नान पंडितजन करते हैं। स्वरूप का दर्शन अनुभूति नहीं हुई उसने धर्म को जाना ही नहीं, उसे धर्म हुआ ही कथन अपेक्षा भेद है, मूलाधार तो एक ही है कि अपना चेतना लक्षण ही निज नहीं क्योंकि धर्म या सम्यक्दर्शन से ही मुक्ति, जीवन में सुख शान्ति आनंद मिलता स्वभाव ब्रह्मस्वरूपी शुद्धात्मा है वही शुद्ध धर्म है, उसी का श्रद्धान करो, इसी बात १०४
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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