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________________ wevera RSON श्री श्रावकाचार जी गाथा-१६८ DOO को कुन्दकुन्दाचार्य समयसार में कहते हैं सम्यक्दर्शन है। यह आत्मा अपने गुण पर्यायों में व्याप्त रहने वाला है और शुद्धनय से 6 णवि होदि अप्पमत्तोण पमत्तो जाणगो दुजो भावो। एकत्व में निश्चित किया गया है तथा पूर्ण ज्ञानघन है एवं जितना सम्यक्दर्शन है। एवं भणति सुद्धं णादो जो सो दु सो चेव ॥६॥ समयसार , उतना ही आत्मा है इसलिये आचार्य प्रार्थना करते हैं कि इस नव तत्व की परिपाटी को शुद्ध आत्मा कौन है, कैसा है? इसका उत्तर दे रहे हैं - 8 छोड़कर यह एक आत्मा ही हमें प्राप्त हो। जो जानने वाला ज्ञायक भाव चेतना वह अप्रमत्त भी नहीं है और प्रमत्त भी इसी बात को योगीन्दुदेव परमात्म प्रकाश में कहते हैंनहीं है, इस प्रकार इसे शुद्ध कहते हैं और जो ज्ञायक रूप से जानने में आया वह तो अमणु अणिविउ णाणमउ मुत्ति विरहिउ चिमित्तु । वही है। एक मात्र जीव तत्व ही चेतनावन्त है, अन्य कोई नहीं। अप्पा इंविय विसउ णवि लक्खणु एह णिरुत्तु ॥३१॥ अशद्धता पर द्रव्य के संयोग से आती है। उसमें मूल द्रव्य अन्य द्रव्य रूप यह शुद्ध आत्मा परमात्मा से विपरीत विकल्प जालमयी मन से रहित है। नहीं होता, मात्र पर द्रव्य के निमित्त से अवस्था मलिन हो जाती है। द्रव्य दृष्टि से शद्धात्मा इन्द्रिय समूह से रहित है। लोक और अलोक को प्रकाशने वाले केवलज्ञान तो द्रव्य जो है वही है, आत्मा का स्वभाव ज्ञायकत्व चेतना मात्र है और उसकी स्वरूप है। अमर्तीक है, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से रहित है। अन्य द्रव्यों में नपाई जावे अवस्था पुदगल कर्म के निमित्त से रागादि रूप मलिन है वह पर्याय है। पर्याय ऐसा शद्ध चेतना स्वरूप ही है और इन्द्रियों के गोचर नहीं है, वीतराग स्वसंवेदन से दष्टि से देखा जाये तो वह मलिन ही दिखाई देता है और द्रव्य दृष्टि से देखा ही ग्रहण किया जाता है। यह लक्षण जिसके प्रगट कहे गये हैं उसको हीतू नि:संदेह जाये तो शायकत्व तो शायकत्व ही है।ज्ञान दर्शन घेतना मात्र ही जीव तत्व आत्मा जान। है वह कहीं जड़ नहीं हुआ। यहाँ द्रव्य दृष्टि को प्रधान करके कहा है, जो यहाँ प्रश्नकर्ता पुन: प्रश्न करता है कि यह बात तो हमारी समझ में आ गई कि प्रमत्त-अप्रमत्त के भेद हैं वे पर द्रव्य की संयोग जनित पर्यायें हैं। 5 निश्चय धर्म चेतना लक्षण शद्ध स्वभाव ही है परन्तु हम वर्तमान में कर्म संयोगी द्रव्यार्थिक नय, द्रव्य दृष्टि या शुद्ध नय की विशेषता क्या है, इसको समयसार मिथ्यात्व दशा में जकड़े हैं, ऐसे में हम क्या करें? में कहा है उसका समाधान करते हैं कि तुम भी ऐसे शुद्ध निश्चय धर्म का श्रद्धान करो। ववहारोऽभूदत्थो भूवत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। इस शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, यह भूवत्थमस्सिदो खलु सम्माविट्ठी हवदि जीवो ॥११॥ शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं, ऐसा भेदज्ञान करो और इसी का सतत् अभ्यास व्यवहार नय अभूतार्थ है अर्थात् असत्यार्थ है, उपचार है और शुद्ध नय भूतार्थ है, करो तो वर्तमान जीवन में समता शान्ति रहेगी और काललब्धि आने पर निज अर्थात द्रव्य दृष्टि शुद्ध है, अभेद है, निश्चय है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, परमार्थ है। ऐसा.शद्धात्मानुभूति भी हो जायेगी। यह जो शुभाशुभ क्रिया कर रहे हो इसे पाप-पुण्य ऋषीश्वरों ने बताया है, जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है, वह जीव निश्चय से मानो, धर्म मत मानो। सम्यक्दृष्टि है। यहाँ प्रश्नकर्ता पुन: प्रश्न करता है कि मिथ्यात्व अज्ञान दशा में हम यह कैसे इसी बात को समयसार कलश में अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं मान लेवें और किस कारण से मान लेवें? एकत्वे नियतस्य शबनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः । उसका समाधान करते हैं कि भाई! जिस मान्यता बुद्धि से तुम अपने पिताजी पूर्णज्ञान घनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्य: पृथक् ॥ को पिताजी मानते हो, घर परिवार आदि अपने को अपना मानते हो और पर को पर , सम्यदर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं। मानते हो। उसी बुद्धि से अब ऐसा मानो कि मैं जीव आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं तन्मुक्त्वा नवतत्व संततिमिमामात्मायमेकोस्तु नः ॥६॥ हूँ। इससे वर्तमान जीवन में समता शान्ति रहेगी। कषाय और कर्म भी गलेंगे विलायेंगे. इस आत्मा को अन्य द्रव्यों से अलग देखना (श्रद्धान करना) ही नियम से मिथ्यात्व भी टूटेगा।
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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