SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री श्रावकाचार जी यहाँ बहिरात्मा किन भावों में कैसा लगा रहता है उसका विशद् वर्णन किया (चेतना लष्यनो सदा) जो हमेशा चैतन्य लक्षणमयी जीवतत्व है, जो त्रिकाल शुद्ध गया है कि यह जीव अपने परमात्म स्वरूप जो देवों का देव स्वयं भगवान आत्मा है ब्रह्म स्वरूपी ध्रुवतत्व, शुद्ध स्वभाव है वह शुद्ध धर्म है (सुद्ध द्रव्यार्थिक नयेन) शुद्ध । ऐसे अपने निजस्वरूप को भूला हुआ कुदेव-अदेव की भक्ति पूजा आराधना करता , द्रव्यार्थिक नय से (धर्म कर्म विमुक्तयं) वह धर्म सर्व प्रकार कर्म से रहित है। है तथा सदगुरू, सम्यकदृष्टि,सम्यकज्ञानी वीतरागी निर्ग्रन्थ साधुओं का सत्संग विशेषार्थ-यहाँशद्ध धर्म निश्चय धर्म या सच्चा धर्म क्या है? इसका स्वरूप नहीं करता, कुगुरुओं के जाल में फंसकर संसार को बढ़ाने वाले अधर्म का सेवन लाया जा रहा है करता है। शुद्ध स्वभाव धर्म है और विभाव अधर्म है। विभाव भावों में आर्त रौद्र जो वस्तु जग में धर्म इस शुभ नाम से विख्यात है। ध्यान, विकथा, सप्त व्यसन, आठ मद और अनन्तानुबंधी चार कषाय रूप परिणाम वह आत्मा के ज्ञानगुण, चैतन्य से ही व्याप्त है। आते हैं, यह सब अधर्म हैं और इन भावों में लगे रहने से संसार में दारुण दु:ख भोगना द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा, धर्म का यह रूप है। पड़ते हैं। दुर्गति नरक निगोद आदि में रुलना पड़ता है। यहाँ तक अधर्म के स्वरूप शुखात्मा ही धर्म है,जो कर्म शून्य अलप है। (चंचल जी) का वर्णन किया गया है। जो हमेशा चैतन्य लक्षणमयी ध्रुव तत्व शुद्धात्मा है, जो त्रिकाल शुद्ध ब्रह्म ___ यहाँ कोई प्रश्न करे कि धर्म का यथार्थ स्वरूप क्या है, उसके भाव और स्वरूपी शुद्ध स्वभाव है, वही सच्चा धर्म है। यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से अर्थात् शुद्ध साधना कैसी होती है तथा उसका पालन कौन करता है? द्रव्य दृष्टि से समझने की बात है। जैसे-किसी स्वर्णकार के पास कोई आभूषण बेचने उसका समाधान करत ह कि धमका यथाथ स्वरूपता अपना चतन्य लक्षणले जाये तो वह उसे देखकर उसमें जो शुद्ध सोना है उसका भाव करता है, कीमत शुद्ध स्वभाव ही है और इसी शुद्ध स्वभाव में रहने की साधना ही वास्तविक धर्म है बताता है, आभूषण भले ही दस तोले का हो, कितना ही सुन्दर हो परन्तु उसमें बताता साधना है। वर्तमान में जीव कर्म संयोगी दशा में है और विभाव परिणमन चल रहा जो खोट रहित शद्ध सोना आठ तोला है, वह उसका ही भाव करता है। इसी प्रकार है, उसे अपनी ओर मोड़ने शुद्ध स्वभाव मय रहने के लिये सबसे पहले भेदज्ञान अशद्ध द्रव्य दष्टि से यह जीव तत्व शुद्ध स्वभाव रूपचेतना लक्षण धर्म सब कर्मों से मुक्त पूर्वक स्व-पर का यथार्थ निर्णय करना तथा अपने शुद्ध स्वभाव निज शुद्धात्म स्वरूप निकाल है। ऐसा जो जीव अपने शटात्म स्वरूप का अनभवन श्रदान करता की अनुभूति होना आवश्यक है क्योंकि धर्म चर्चा का विषय नहीं,अनुभूति और है.वह सत्यधर्म को उपलब्ध होता है और इसी के श्रद्धान, साधना से मोक्ष होता है। श्रद्धान चर्या का विषय है। जिसे भेदज्ञान तथा निज शुद्धात्मानुभूति हो जाती है. ऐसे निश्चय शद्ध धर्म के श्रद्धान आराधना किये बिना न कोई मोक्ष गया है, न जा वह सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा होता है और वही यथार्थतया धर्म के सच्चे स्वरूप को सकता है. न कभी जायेगा। जानता है। S यहाँ एक विशेष बात कही गई है कि धर्म कर्म विमुक्तयं अर्थात् धर्म, कर्म से शुद्धधर्म क्या है और उसकी साधना का मार्ग क्या है? इस बात को सद्गुरुदेव रहित है। जहाँ धर्म है. वहाँ कर्म नहीं है तथा जहाँ कर्म है, वहाँ धर्म नहीं है, बड़ी आगे गाथाओं में विवेचन करते हैं। जो अन्तरात्मा अव्रत सम्यक्दृष्टि इस बात को अपर्व बात है। हम अशुभ कर्म पापादिको बुरा मानते हैं और शुभ कर्म पुण्यादि को जानता समझता है और साधना करने का पुरुषार्थ करता है, वह अन्तरात्मा सम्यक्दृष्टि अच्छा और उसी को धर्म मानते हैं। तारण स्वामी यहाँ कहते हैं जो पुण्य-पापादि र कौन और कैसा होता है उसके स्वरूप का वर्णन करते हैं • कर्मों से रहित भिन्न मुक्त है वह धर्म है। शुद्ध धर्म क्या है इसे कहते हैं - कर्म तीन प्रकार के बताये गए हैं- द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म। सुद्ध धर्म च प्रोक्तं च, चेतना लण्यनो सदा। ज्ञानावरणादि आठ कर्म द्रव्य कर्म कहलाते हैं। राग द्वेषादि मलिनभावभावकर्म सुद्ध द्रव्यार्थिक नयेन, धर्म कर्म विमुक्तयं ॥१८॥ कहलाते हैं। शरीरादिपुद्गल पिंड नो कर्म कहलाते हैं। द्रव्यदृष्टि से आत्मा इन तीनों 1 अन्वयार्थ- (सुद्ध धर्म च प्रोक्तं च) शुद्ध धर्म कैसा कहा गया है वह कहते हैं ने . कर्मों से रहित शुद्ध चैतन्यमयी है, उसे शुद्ध धर्म कहा गया है। जो इसका श्रद्धान Arormera re १०३
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy