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________________ आशा श्री आचकाचार जी को संसार में जन्म-मरण और कर्मबन्ध में कारण हैं। इनके उपशम, क्षय, क्षयोपशम विशेषार्थ- यहाँ अनन्तानुबंधी लोभ का स्वरूप बताया जा रहा है। होने पर जीव को जब अपनी स्वसत्ता शक्ति का बोध होता है विवेक और पुरुषार्थ लोभ-चाह. आशा, तुष्णा,इच्छा, मूर्छा पकड़ को कहते हैं। इनकी अति ही जागता है तभी वह संसार से मुक्त होता है। ५ अनन्तानुबंधी कहलाती है। अनन्तानुबंधी लोभ, किरमिच (डामर) के रंग जैसा होता, जीव में रागादि विकार का नाम ही अधर्म है और विकार का त्याग होकर है.जो मश्किल से छटता है। लोभ सब पापों का बाप है, कषायों का राजा है। इसी के स्वरूप की प्राप्ति ही धर्म है। सात व्यसनों में आसक्ति और आठ मदों में लीनता कारण माया, मान, क्रोध होते हैं। कहा हैअनन्तानुबंधी कषाय के कारण होती है, इसी से चार विकथाओं में रत रहता है। उत्तम शौच सर्व जग जाना,लोभ पाप का बाप बखाना। ___जिससे अनन्त अनुबंध हो, वह अनन्तानुबंधी कहलाती है। कषाय अर्थात् आशा फाँस महा दु:खदानी, सुख पावे सन्तोषी प्राणी ॥ जो कर्मों से कसे बांधे वह कषाय है। कषाय चार होती हैं. इसमें लोभ कषाय का। लोभ धनादि पर वस्तु का होता है। जो वस्तु नाशवान क्षणभंगुर है, यह वर्णन करते हैं - देखते जानते हुए भी लोभ के वशीभूत प्राणी धन-वैभव,जमीन-जायदाद की, पुत्र लोभं अनृत सद्भाव, उत्साहं अनृतं कृतं । * पौत्रादि की आशा तृष्णा में फंसा नाना प्रकार के पाप करता है और ऐसे ही कार्यों के तस्य लोभ प्राप्तं च, तं लोभ नरयं पतं ॥ १५२॥ प्रति बड़ा उत्साहित रहता है। आरंभ परिग्रह धन्धा व्यापार की नई-नई योजनायें लोभं कुन्यान सद्भावं, अनाद्यं भ्रमते सदा। बनाता है। नीति-अनीति, पुण्य-पाप का कोई विचार नहीं करता,धर्म-कर्म का तो ८ होश ही नहीं रहता। बहुत आरंभ परिग्रह में फंसा नरकायु बांधकर नरक चला अति लोभ चिंतते येन,तं लोभ दुर्गति कारनं ।। १५३ ॥ । जाता है। बहारंभ परिग्रहत्वं नारकस्यायुषः॥६/१५॥ तत्वार्थ सूत्र असास्वतं लोभ कृत्वं च, अनेय कष्टं कृतं सदा। क लोभ और कुज्ञान के सद्भाव में संसाराशक्त,पर्याय बुद्धि, विषयों का लोलुपी चेतना लष्यनो हीना, लोभं दुर्गति बंधनं ।। १५४॥ बना रहता है। धन के संग्रह करने की चिंता में हमेशा चिन्तित रहता है। खाना, अन्वयार्थ- (लोभं अनृत सद्भाव) लोभ नाशवान मिथ्या क्षणभंगुर पदार्थों के पीना, सोना भूल जाता है । मरने की भी फुरसत नहीं रहती, धर्म-अधर्म का तो विवेक होता ही नहीं है। प्रति होता है (उत्साहं अनृतं कृतं) और ऐसे ही नाशवान कार्यों के करने के प्रति उत्साह रहता है (तस्य लोभं प्राप्तंच) और ऐसे ही असत् पदार्थों के प्राप्त करने का र धन का संग्रह,धन की रक्षा और धन का खर्च होना,चले जाना यह लोभी प्राणी के लिये बड़े दु:ख के कारण हैं। लोभ बना रहता है (तं लोभ नरयं पतं) ऐसा लोभ नरक में डाल देता है। लोभी प्राणी दूसरों के धन वैभव,ऐश्वर्य को देखकर हमेशा कुढता अर्थात (लोभं कुन्यान सद्भाव) लोभ और कुज्ञान के सद्भाव में (अनाद्यं भ्रमते सदा) यह जीव हमेशा से भ्रमते भटकते काल गवां रहा है (अति लोभ चिंतते येन)* ईर्ष्या करता रहता है। रात-दिन नई-नई तरकीबें सोचता रहता है। अपने बढ़ने की और दूसरों को गिराने की योजना बनाता है, निरंतर रौद्र ध्यान में लगा रहता और अति लोभ का चिन्तन किया करता है (तं लोभं दुर्गति कारनं) यह लोभ दुर्गतिर " है। तंदुल मच्छ और महामच्छ का कथानक इसका प्रमाण है। बाहर में धन-वैभव का कारण है। (असास्वतं लोभ कृत्वं च) अशाश्वत, नाशवान पदार्थों का लोभ करने से .5 होवे या न होवे क्योंकि वह तो पाप-पुण्य कर्म उदयानुसार होता है परन्तु लोभ (अनेय कष्टं कृतं सदा) हमेशा अनेक कष्ट भोगता रहता है (चेतना लष्यनो हीना) के कारण जीव हमेशा दु:खी चिन्तित रहता है। कहा हैचैतन्य लक्षण अपने स्वरूप को भूला है और (लोभं दुर्गति बंधनं) लोभ से दुर्गति का दाम बिना निर्धन दु:खी,तृष्णा वश धनवान। कहूंन सुख संसार में,सब जग देखो छान ॥ बन्ध कर रहा है। लोभी प्राणी प्राप्त पुण्य के उदय को नहीं भोगता, आगे की तृष्णा चाह में मरता
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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