SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ PO4 श्री आबकाचार जी भावपूर्वक ग्रहण किये हुए थोड़े से श्रुत से जड़ बुद्धि मनुष्य को भी निर्वाण अनृतं कृतं) मिथ्यात्व और राग करता है (विस्वासं दुर्बुधि चिंते) अपनी दुर्बुद्धि से प्राप्त हो सकता है। माषतुष मुनि जड़ बुद्धि होने के कारण पढ़ने में असमर्थ थे। उन्हीं का चिन्तन और विश्वास करता है (ते नरा दुर्गति भाजन) वह मनुष्य दुर्गति मा तुषमा रुस अर्थात् राग मत करो, द्वेष मत करो, यह भी याद नहीं कर सकते थे। का पात्र बनता है। मात्र तुष माष भिन्नं से निर्वाण हो गया अत: मैंने बहुत पढ़ा है, और मैं सब अर्थ को विशेषार्थ- यहाँ बहिरात्मा जो संसार में रुल रहा है उसका कारण बताया जानता हूँ, ऐसा गर्व करना नि:सार है तथा श्रुतज्ञान के बहुत भेद हैं, कोई एक अर्थ जा रहा है। अपने सत्स्वरूप को भूला हुआशरीरादि पुद्गल कर्मों में एकत्व मानकर की व्याख्या करता है, कोई दो अर्थ की व्याख्या करता है और कोई एक ही सूर्य के ताह आरकाइएक हा सूर्यक5 मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषाय सहित हो रहा है, जो राग और द्वेष से युक्त है अनेक अर्थ करता है तथा श्रुतज्ञान तो सभी मदों को दूर करने वाला है। स्थूलभद्र स्थूिलभद्र जिसकी बुद्धि मिथ्यात्व से ग्रस्त होने के कारण मलिन है और मलिन बुद्धि के कारण सहीटिमिशाल से गस्त होने महर्षि को विशिष्ट श्रृताभ्यास से विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हो गई, उसके गर्व में आकर । पाँच इन्टियों के विषय हिंसादि पाप और आर्त-रौद्र ध्यान रूपतीव्र परिणाम होते उन्होंने दर्शनार्थ आई हई आर्यिकाओं को भयभीत कर श्रुतसम्प्रदाय का विच्छेद हैं।जो कार्य-अकार्य का निश्चय करने में मूढ़ है, संक्लेश और विशुद्धि के स्वरूप किया अत: कौन व्यक्ति होगा जो इस घटना को सुनकर श्रुत का मद करेगा? * को नहीं समझता, आहार, भय, मैथुन और परिग्रह रूप चार संज्ञाओं के कलह में मान कषाय ही सब मदों का मूल है। जो साधु या श्रावक उसे उखाड़ फेंकना १२. फँसा है। सर्वदा हजारों दु:खों को सहने के कारण दुर्बल हो रहा है, दया का पात्र चाहते हैं उन्हें न तो अपनी प्रशंसा करना चाहिये और न दूसरों की निंदा आलोचना है। विषय सख में आसक्त होकर उन्हीं की चाहना करता है। वह जीव अनन्तानुबंधी करना चाहिये क्योंकि इससे नीच गोत्र कर्म का बन्ध होता है जो अनन्त जन्मों तक हाता हजाअनन्त जन्मा तक कषाय वाला कहा जाता है, ऐसा मनुष्य दुर्गतियों का पात्र बनता है। संसार में दुर्गति का पात्र बनाता है और संसार में दारुण दु:ख भोगना पड़ते हैं; अत:। अपनी प्रशंसा करना,पूज्य पुरुषों में भी दोष निकालने का स्वभाव होना, अपने आत्म स्वरूप का श्रद्धान करो और यह शरीर संयोग से होने वाले मदों को 5 बहुत काल तक बैर बांधे रहना यह तीव्र कषायी जीव के लक्षण हैं। जीव का स्वभाव छोडो क्योंकि यह दर्गति के कारण अधर्म ही हैं। शरीरादि सब संयोगी पदार्थ ज्ञान है और ज्ञान का कार्य यथार्थ रूप से पदार्थ को जानना है; किन्तु संसारी जीव नाशवान हैं, अस्थायी हैं। जो शाश्वत अविनाशी अपना ध्रुव तत्व शुद्धात्म स्वरूप है की स्थिति इससे विपरीत हो रही है। वह विवेकभ्रष्ट, दुर्बुद्धि हो रहा है इसका कारण रान यह अनन्त चतुष्टय का धारी रत्नत्रयमयी स्वयं परमब्रह्म परमात्मा है। ऐसे अपने एमिथ्यात्व है। यह मिथ्यात्व इसके अनादिकाल से चला आ रहा है। यह किसी ने स्वरूप स्वसत्ता शक्ति का बहुमान करो तो यह संसार के जन्म-मरण, सुख-दु:ख के ८ किया नहीं है । दर्शन मोहनीय इसका कारण अवश्य है; परन्तु वह प्रति समय की क्रिया नहीं। चक्र से छूट जाओगे। होने वाली पर्याय में ही निमित्त है। मुख्यतया इसी के कारण जीव संसार में परिभ्रमण बहिरात्मा जो पुद्गल को ही देख रहा है, वह ऐसे मदों में, विकथा, व्यसनों S कर रहा है। इसके कारण जीव को अपने स्वरूप की उपलब्धि नहीं होती। मिथ्यात्व में फँसा रहता है और इससे ही संसार में रुलता है। और कषाय ही मुख्य माने गये हैं। ज्ञान में समीचीनता और असमीचीनता भी इसी विनय व नम्रता रखते हुए शुद्ध तत्व को जानने से ही स्वहित होगा। मिथ्यात्व के कारण आती है। इसके कारण जीव स्वरूप को भूलकर पर में स्व की आगे अधर्म के अन्तर्गत चार अनन्तानुबंधी कषायों का वर्णन करते हैं - कल्पना कर रहा है। घर, स्त्री आदि के छूट जाने पर भी जीव यदि विवेकी नहीं हो ५.अनन्तानुबन्धी कषायों में रत रहना अधर्म है पाता तो इसका कारण एक मात्र यही है। बाह्य प्रवृत्ति वश लोग साधु और उत्कृष्ट कार्य जेन अनंतानं, रागं च अनृतं कृतं । तपस्वी होते हुए देखे जाते है; किन्तु इसकी गांठ न खुलने पर उनका वह समस्त विस्वासं दुर्बुधि चिंते, ते नरा दुर्गति भाजनं ॥१५१॥ आचरण क्रिया धर्म व्यर्थ जाता है। अन्वयार्थ- (कषायं जेन अनंतानं) जो जीव अनन्तानुबंधी कषाय (रागं च तीन मिथ्यात्व-मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व, सम्यकप्रकृति मिथ्यात्व। चार अनन्तानुबंधी कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ। यह सात प्रकृतियाँ ही जीव
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy