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________________ Ou40 श्री श्रावकाचार जी गाथा-१५६.१६.C O रहता है, हमेशा अनेक कष्ट भोगता है। लोभ के कारण मरने-जीने की भी परवाह मानं राग संबंधं, तप दारुनं नंतं श्रुतं । नहीं करता। भूख-प्यास सहता है। गर्मी-सर्दी मेंमारा-मारा फिरता है। धन के पीछे अनेक कुकृत्य करता है। लोभी प्राणी नकटा होता है। धन-वैभव का होना पुण्य के . अनृतं अचेत सद्भाव, कुन्यानं संसार भाजनं ॥१६॥ उदय का परिणाम है। यह उसे अपना कर्तृत्व पुरुषार्थ मानता है। अपने निज चैतन्य अन्वयार्थ- (मानं असत्य रागं च) मान भी झूठे राग से होता है (हिंसानंदी च ७ लक्षण शुद्ध स्वभाव को भूला है। स्वयं तीन लोक का नाथ अनन्त चतुष्टय का धारीदारुनं) यह हिंसानंदी और भयानक कष्टकारी होता है (परपंचं चिंतते येन) इससे , भगवान आत्मा चेतना हीन हो रहा है और पर पदार्थ धनादि के पीछे अपनी दुर्गति 5 नाना प्रकार के झगड़े मायाचार के ही विचार चलते रहते हैं (सुद्ध तत्वं न पस्यते) दुर्दशा करा रहा है। यह लोभ कषाय ही सब दु:खों की, पापों की जड़ है, यही संसार ऐसा जीव अपने शुद्ध आत्मीक तत्व को नहीं देखता। में दुर्गति का कारण है। (मानं असास्वतं कृत्वा) मान बिल्कुल झूठा नाशवान कृत्य है ( अनृतं राग अधिक लोभ के वश में जो बाहरी धन-धान्य पदार्थ बढ़ा लिये जाते हैं, नंदित) झूठे क्षणभंगुर राग में ही आनंद मानता है (असत्यं आनंद मूढस्य) जो मूढ उनकी तो बात ही क्या है, वे तो नष्ट हो ही जाते हैं; किन्तु जिसको प्रमुख रूप से ऐसा झूठा आनंद मानता है (रौद्र ध्यानं च तिस्टते) वह रौद्र ध्यान में लीन अपना मानते हैं ऐसा यह शरीर भी नष्ट हो जाता है,अंत में सब छोड़कर जाना ही रहता है। पड़ता है। (मानं पुन्य उत्पाद्यते) मान से पुण्य पैदा करना चाहता है अर्थात् अपना नाम आने है आने है जा मौत तो इक दिन आने है। बड़ाई चाहता है (दुर्बुधि अन्यानं श्रुतं) दुर्बुद्धि खोटे शास्त्र रचता है (मिथ्या मय मूढ जाने है जाने है सब छोड़ के इक दिन जाने है। दिस्टी च) मिथ्या माया से घिरा मूढ दृष्टि है (अन्यान रूपीन संसय:) इसका सारा ऐसा विचार कर बुद्धिमान पुरुष इस आत्मा के विरोधी भयानक शत्रु लोभ का लिखना, पढ़ना, कहना अज्ञानमयी है, इसमें कोई संशय नहीं है। नाश करते हैं। लोभ के नाश का उपाय जिनवाणी का स्वाध्याय सत्संग मनन कर (मानस्य चिंतन दुर्बुधि) मान का चिन्तन विचार करना ही दुर्बुद्धि है (बुद्धि आत्मा और आत्मा से भिन्न पदार्थों का भेदज्ञान है यही उपादेय है। 3 हीनो न संसया) मान कषाय वाला मानी बुद्धिहीन है. इसमें कोई संशय नहीं है मानं असत्य राग च, हिंसानंदी च दारुनं । (अनृतं नृत जानते) वह झूठे नाशवान पदार्थों को सत्य जानता है (दुर्गति पस्यते ते परपंचं चिंतते येन, सुख तत्वं न पस्यते ॥ १५५॥ R नरा) ऐसा मनुष्य दुर्गति में ही जाता है। (मानं बंधं च रागं च) मान में बंधा अर्थात अपनी अकड़ में फला और रागादि मानं असास्वतं कृत्वा , अनृतं राग नंदितं । 5 में लगा (अर्थ विचिंत नंतयं) नाना प्रकार के धनादि संग्रह के विचारों में, योजनाओं में असत्यं आनंद मूढस्य, रौद्र ध्यानं च तिस्टते ॥१५६॥ लगा रहता है (हिंसानंदीच दोषं च) हिंसा करने और नाना प्रकार के अपराध करने मानं पुन्य उत्पाचंते, दुर्बुधि अन्यानं श्रुतं। के विचार चलते रहते हैं (अनृतं उत्साहं कृतं) और ऐसे ही दुष्कर्म बड़े उत्साह पूर्वक मिथ्या मय मूढ दिस्टीच, अन्यान रूपीन संसयः॥१५७ ॥ करता रहता है। (मानं राग संबंध) मान के कारण अपनी अकड़ में फूला अपना बड़प्पन 2 मानस्य चिंतनं दुर्बुधि, बुद्धिहीनो न संसया। बताने के लिये (तपदारुनं नंतं श्रुतं) बड़ी कठिन तपस्या करता है। अनेक प्रकार के अनृतं नृत जानंते, दुर्गति पस्यते ते नरा ॥ १५८ ॥ शास्त्र पढ़ता है, बड़ा ज्ञानी बनता है (अनृतं अचेत सद्भाव) झूठे शारीरिक कृत्य में मानं बंध च रागं च, अर्थ विचिंत नंतयं । लगा रहता है (कुन्यानं संसार भाजन) ऐसा कुज्ञानी संसार में ही रुलता है दुर्गति । हिंसानंदी च दोष च, अनृतं उत्साहं कृतं ॥१५९॥ भोगता है।
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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