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________________ SOON श्री आचकाचार जी गाथा-१४३-१४४ w r विकारी हो जाता है। मन का विकारी होना ही काम देव का उत्पादक है। असत्यं असास्वतं रागं,उत्साहं परपंच रतो। ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा के लिये तत्वार्थ सूत्र में पाँच भावनायें बताई हैं - सरीरे राग विचंते, ते पुनः दुर्गति भाजन ॥१४॥ स्त्रीराग कथा श्रवण तन्मनोहरांग निरीक्षण पूर्वरतानुस्मरण दृष्येष्ट रस स्वशरीर संस्कार त्यागा: पंचः ।। ७/७॥ अन्वयार्थ- (एतानि राग संबंधं) इस प्रकार राग के सम्बन्ध से (मद अस्टं १. स्त्रियों में राग बढ़ाने वाली कथाओं का सुनना छोड़ना चाहिये। 3 रमते सदा) हमेशा आठ मदों में लगा रहता है (ममतं असत्य आनंदं) झूठे ममत्व में २. स्त्रियों के मनोहर अंगों के देखने का त्याग करना चाहिये। आनंद मानता है (मद अस्टं नरयं पतं) आठों मद नरक में पतन के कारण हैं। ३. पूर्व में भोगे हुए भोगों की स्मृति नहीं करना चाहिये। R (असत्यं असास्वतं रागं) झूठे, क्षणभंगुर राग से (उत्साहं परपंच रतो) प्रपंच ४. कामोद्दीपक पौष्टिक रस नहीं खाना चाहिये। 2 मेंरत रहता है (सरीरे राग विधंते) शरीर का राग बढ़ जाने से (ते पुन: दुर्गतिभाजन) ५. अपने शरीर का श्रृंगार नहीं करना चाहिये। 5वह मनुष्य दुर्गति का पात्र बनता है। सप्तव्यसन जिनके वय, सो नर नीच कहाय । विशेषार्थ- यहाँ बहिरात्मा जो संसार शरीर भोगादि में आसक्त पुद्गल की चूत जुआ आमुख सुरा, आखेटक दु:खदाय ॥ रचना में लगा है वह धन,स्त्री,पुत्र, परिवार के लिये संसारी ऐश्वर्य प्राप्ति के लिये चोरी पर नारी रता, रामामिखम सोय । कुदेवादि की पूजा भक्ति करता है। कुगुरुओं की मान्यता, वंदना भक्ति करता है और अन्तर दीरथ कल्पना, आध घ्याध दु:खदोय ॥ उनके कथनानुसार अधर्म सेवन में लगा रहता है। सच्चा देव-निज शुद्धात्मा, परिवे कुंभी पाक में, सप्त व्यसन सोपान। सच्चा गुरू-निज अन्तरात्मा और सच्चा धर्म-निज शुद्ध स्वभाव को नहीं निःश्रेणी शम वम दया,सत्यात जप तप दान ॥ जानता मानता । व्यवहार में सच्चे देव-सर्वज्ञ वीतरागी हितोपदेशी अरिहन्त सत्संगति जो कोई करे, सरै सकल ही काम । एसिद्ध परमात्मा, सच्चे गुरु-ज्ञानी वीतरागी निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु, सच्चा और काम की कुण चली,मिले निरंजन राम ॥ धर्म-वस्तु स्वभाव को भी नहीं जानता मानता। मिथ्या देवगुरू धर्म के चक्कर में सप्त व्यसन अधर्म ही है। इनमें फँसा जीव नरक में जाता है इसलिये जो फँसा अधर्म का सेवन करता है और संसार में रुलता रहता है। जीव अपना आत्म कल्याण करना चाहते हैं उन्हें विकथाओं का और व्यसनों का अधर्म क्या है? जो शुभाशुभ कर्म, पाप-पुण्य हैं; यह सभी अधर्म है। इसके त्याग बाहर और भीतर दोनों प्रकार से कर देना चाहिये। आंतरिक परिणति का अन्तर्गत आर्त-रौद्र ध्यान, चार विकथायें, सात व्यसन यह सब अधर्म और दुर्गति के बाह्य क्रिया आचरण पर प्रभाव पड़ता है और बाह्य आचरण क्रिया आंतरिक परिणति कारण हैं। इनमें फंसा जीव संसार के दारुण दु:ख भोगता है, इन्हीं में आठ मद भी का द्योतक होती है। अपना भला करना है तो अन्तर बाह्य दोनों परिणति संभालें आते हैं। इस प्रकार संसार के मोह-राग के सम्बन्ध में फँसा जीव शरीरादि बाह्य और अपने आत्म स्वरूप की रमणता का पुरुषार्थ करें। अध्यात्म भाषा में अपनी संयोग को ही अपना स्वरूप मानता है और उन्हीं का अहंकार, मद करता है, यह मद अशुद्ध पर्याय देखना भी अब्रह्म कुशील सेवन है। पर पर्याय देखना तो व्यभिचारीपना आठ प्रकार के होते हैं, जिनमें हमेशा रमता रहता है। जगत की ममता में फँसा रहता र पर स्त्री सेवन करना है। 5 है। मिथ्या झूठे पदार्थों में आनंद मानता है। इस प्रकार आठ मदों में फंसा जीव नरक आगे अधर्म के स्वरूप में अष्ट मदों का वर्णन करते हैं चला जाता है। जगत की सर्व रचना क्षणभंगुर नाशवान है, परिणमनशील है, प्रति ४. आठ मद करना अधर्म है समय बदलती रहती है। ऐसे क्षणभंगुर नाशवान झूठे पदार्थों में रमण करता है और एतानि राग संबंध, मद अस्टं रमते सदा। हमेशा इन्हीं के प्रपंच में लगा रहता है। वह आत्मा को बिल्कुल भूलकर अपने को शरीर रूप ही माना करता है, इससे शरीर का राग बढ़ता है। स्वस्थ सुन्दर बनाने ममतं असत्य आनंद, मद अस्टं नरयं पतं ॥१४३॥
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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