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________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-१३५.१४२ P OON कहानी कहना, सुनना वार्तालाप करना, और उसमें आनंदित होना (विकहा परदार जो जीव कषाय सहित राग पूर्वक इन्द्र चक्रवर्ती राजा-महाराजाओं के वैभव सेवनं) यह सब विकथायें हैं इससे परदार सेवन का दोष लगता है। विलास, विषय-भोगादि की विकथाएँ करते हैं। उनकी भावना भी उन्हीं में लगी (मनादि काय विचलंति) मन,वचन, काय सहित विचलित होकर (इन्द्रिय , रहती है। वह भी वैसे ही भोगादि भोगना चाहते हैं। वह मनुष्य भी परदारा रत पाप के विषय रंजितं) इन्द्रिय विषय में रंजायमान हो गये (व्रत षंड सर्वधर्मस्य) तो सब धर्म दोषी भागीदार हैं। कामभोग की कथाओं का वर्णन करना बड़ी रुचि पूर्वक आनंद से चला गया और व्रत भी खंडित हो गया (अनृत अचेत सार्धयं) क्षणभंगुर अचेतनकहना सुनना यह भी मनुष्य को बड़ा क्षोभित, मलिन चित्त, आकुल-व्याकुल कर शरीर के पीछे सब धर्म साधना गंवा दी। देता है। जो किसी विकथाओं को कहते सुनते हैं वह परदारा में रत पापी ही हैं। नाटक __ (विषयं रंजितं जेन) जो जीव विषयों में रंजायमान रहते हैं (अनृतानंद संजुतं), सिनेमा आदि देखना भी इसी के अन्तर्गत आता है तथा अश्लील कामवर्धक वे झूठे विषयों के आनंद में लीन रहते हैं, यही मृषानंदी रौद्रध्यान होता है जो नरक, साहित्य पढ़ना,उपन्यास, कथा-कहानी और ऐसे पुराण भी इसी में आते हैं। इनको ले जाता है (पुन्य सद्भाव उत्पादंते) वे पुण्य का संचय करना चाहते हैं, क्योंकि पुण्य पढ़ने सुनने से भी ब्रह्मचर्य व्रत खंडित होता है और स्त्रियों की आसक्तता बढ़ती है। के उदय से ही यह विषयादि सुख मिलते हैं (दोषं आनंदनं कृतं) वह मूढ संसार के ब्रह्मचर्य के पालने के लिये यह आवश्यक है कि भावों को बिगाड़ने वाले निमित्तों कारण समस्त दोषों को आनंद से करता है। प्रसन्नता पूर्वक मोह, राग-द्वेषादि, से भी बचा जाये; क्योंकि काम भाव की आग का उत्पन्न होना महान अनर्थ और विषय-कषायों में लगा रहता है। दु:खों का कारण है। विशेषार्थ- यहाँ पर स्त्री रमण व्यसन का वर्णन चल रहा है। यहाँ कोई प्रश्न जिससे परिणाम विचलित होवें, ऐसे स्त्रियों के विलास रूपादि का चिन्तन करता है कि वेश्या गमन और पर स्त्री रमण में क्या भेद है ? र करना वार्तालाप चर्चा करना, कथा-कहानी पढ़ना,सुनना और उसमें आनन्दित उसका समाधान करते हैं कि वेश्या बाजारू स्त्री को कहते हैं। जो विवाहित होना यह सब विकथायें हैं, इससे परदार सेवन का दोष लगता है। मन,वचन,काय हो या अविवाहित हो, बाजार में बैठकर अपने शरीर को बेचने का धन्धा करती है 5 सहित विचलित होकर इन्द्रिय विषय में रंजायमान हो गये,लग गये वहाँ तो सब धर्म और पर स्त्री, दूसरे की विवाहित स्त्री को कहते हैं। यह मनुष्य की दुष्ट प्रवृत्ति से होता ही चला गया, व्रत भी खंडित हो गया। क्षणभंगुर इन्द्रिय विषय और अचेतन शरीर है। यहाँ जिसकी दुष्ट प्रवृत्ति है जो कामी जीव है जिसका पर स्त्री में आसक्त भाव है के पीछे सब धर्म साधना ही गवां दी, इससे नरक निगोद में जाना पड़ेगा। जो जीव वह हमेशा प्रपंच में लगा रहता है अर्थात् छल छिद्र मायाचारी से नाना प्रकार के विषयों में रंजायमान रहते हैं, वे मृषानंदी रौद्र ध्यान करके नरक जाते हैं तथा पुण्य जाल रचा करता है। उसकी ममता चाह अशुद्ध भावों में रहती है अर्थात् वह अशुद्ध का संचय करना चाहते हैं। पुण्य को ही धर्म मानते हैं क्योंकि पुण्य के उदय से ही पापपूर्ण काम के भावों में लगा रहता है। वह मायाचारीपूर्ण कुटिल छल छिद्र युक्त यह विषयादि सुख मिलते हैं। ऐसे मूढ संसार के कारण समस्त दोष, पाप, मोह, वार्तालाप करता है । अब्रह्म से जिसका कुटिल क्रूर स्वभाव है। जो मन से वैसे राग-द्वेषादि कषाय को बड़ी प्रसन्नता, आनंद से करते हैं और संसार में दुर्गतियों में विचार करता है और वचनों से वैसा ही कहता है, वह मनुष्य ब्रह्मचर्य व्रत से हीन है रुलते हैं। और संसार में दारुण दुःख भोगता है। पर स्त्री भोग का भाव मन और वचन को कुटिल काम की इच्छा अतिदुष्ट होती है, यह संसार को बढ़ाने वाली, क्लेश को पैदा ९बना देता है। उनके भावों में पर स्त्री का रूप बस जाता है। वे उसे देखने की. उससे करने वाली, धन का नाश करने वाली है। जो जीव ऐसे व्यसनों में फँसे होते हैं 9 बात करने की, उससे मिलने की चिंता में पड़े रहते हैं। उनका पुण्य,धर्म,धन,यशवंश सब नष्ट हो जाता है। यहाँ भी महान दःख भोगते हैं ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा के लिये निमित्तों से बचने की बहुत आवश्यकता है। और परभव में नरक निगोद आदि दुर्गतियों में जाते हैं। स्त्री-पुरुष का एकांत निमित्त बड़े-बड़े महाव्रती मुनि तक के भावों में मलिनता द्रव्य संयम से भाव संयम होता है। परिणामों की संभाल निमित्तों से बचने पर पैदा कर देता है; इसलिये व्रती को एकांत में शय्या व आसन रखने को कहा है। होगी। मन की चंचलता बड़ी विचित्र है। जरा भी विपरीत निमित्त मिलता है तो मन ९१
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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