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________________ CoOuी आपकाचार हृष्ट-पुष्ट करने विषय-भोग करने में लगा रहता है तथा मैं राजा हूँ, मैं सेठ हूँ, मैं मानं राग संबंध, तप दारुन नंतं श्रुतं। बलवान हूँ, मैं विद्वान हूँ, मैं तपस्वी हूँ, मैं सुन्दर हूँ, मैं बड़े वंश का हूँ इत्यादि सुद्ध तत्वं न पस्यंति, ममतं दुर्गति भाजनं ॥१५०॥ शरीर की मूर्छा में मूञ्छित अहंकार से ग्रसित आठ मदों में लगा तीव्र कर्म बांधकर अन्वयार्थ- (जाति कुल सुरूपं च) जाति मद, कुल मद,रूप मद और दुर्गति में चला जाता है। इस शरीर की आयु गलती जाती है। सब रूप विलय होता जाता है। 8 (अधिकारं न्यानं तपं) अधिकार मद, ज्ञान मद, तप मद, (बलं सिल्प आरूढ़) बल जरा (बुढ़ापा) निकट आता जाता है। रोगों का उदय होता जाता है तो भी मद,शिल्प कला का मद इन पर आरूढ़ अर्थात् अहंकार चढ़ा हुआ (मद अस्टं संसार भाजन) यह आठों मद संसार का पात्र बनाते हैं। यह मूढ मनुष्य कुटुम्ब स्नेह में फंसा हुआ लोभ में जकड़ा रहता है। (जातिं च राग मयं चिंते) जाति, माता पक्ष के रागमय (अनृतं नृत उच्यते) पाप-परिग्रह में लगा रहता है। मोह राग में दु:खी आकुलित चिन्तित भयभीत होता रहता है। अपने आत्म स्वरूप को नहीं देखता पहिचानता और झूठे मोह ९ जो झूठे, मिथ्या हैं उनको शाश्वत कहता है (ममतं स्नेह आनंदं) ममत्व और स्नेह माया के जाल, संसार से छूटने का पुरुषार्थ नहीं करता जबकि यह धन ए में आनंद मानता है (कुल आरूढ़ रतो सदा) हमेशा कुल मद, पितापक्ष के अहंकार संपदा क्षणिक अस्थायी है, यह सब शरीर संयोग, स्त्री, पुत्र, परिवार का & का नशा चढ़ा रहता है और उसी में रत रहता है। सम्बन्ध क्षणभंगुर नाशवान है, आयु का अंत आते ही सब छूट जाता है, (रूपं अधिकारं दिस्टा) सुन्दर रूप को तथा अधिकार को देखकर (रागं शरीर भी जला दिया जाता है। यह सब प्रत्यक्ष आँखों के सामने देखते हुए भी 5 विधंति जे नरा) जो मनुष्य राग बढ़ा लेते हैं (ते अन्यान मयं मूढा) वे अज्ञानमयी मूढ़ मानव नहीं चेतता । गुणवान ज्ञानीजन ऐसा विचार करके अपने शुद्ध 3 मूढ हैं और (संसारे दुष दारुन) संसार के दारुण दु:ख भोगते हैं। आत्म स्वभाव में रमण करते हैं। वास्तव में इन सांसारिक पदार्थों के लिये (कुन्यानं तप तप्तं च) कुज्ञान सहित तप करने वालों का (रागं विधंति ते मानवमुच्छ करना मात्र अज्ञानता है। ५ तपा) उस तप से राग बढ़ जाता है अर्थात् मद और कषाय बढ़ जाती है (ते तानि आठमद क्या हैं और उनका स्वरूप क्या है? इसे आगे की गाथाओं में कहते हैं * मूढ सद्भाव) वे सब मूढ स्वभावी हैं जो (अन्यानं तप श्रुतं क्रिया) अज्ञान तप, सुनी सुनाई क्रिया करते हैं। जाति कुल सुरूपं च, अधिकार न्यानं तपं । (अनेय तप तप्तान) ऐसे अज्ञानमयी, कुज्ञान सहित अनेक तप करते रहो बलं सिल्प आरूढं, मद अस्टं संसार भाजन ॥१४५॥ ८ (जन्मन कोड कोडिभि) करोड़ों-करोड़ जन्मों तक करते रहो (श्रुतं अनेय जानते) जातिं च राग मयं चिंते, अनृतं नृत उच्यते। है अनेक शास्त्रों को भी जानते रहो अर्थात् बहुत आगम ज्ञान हो तो भी (राग मूढ मयं ममतं स्नेह आनंदं, कुल आरूड़ रतो सदा ॥ १४६ ।। सदा) हमेशा राग मयी हमेशा रागमयी होने से वह सब अज्ञानमय है। (मानं राग संबंध) ऐसे मान कषाय और राग से बंधे हुए (तप दारुनं नंतं रूपं अधिकारं दिस्टा,रागं विधति जे नरा। श्रुतं) बहुत कठोर दारुण तप करो और अनन्त शास्त्र पढ़ लो (सुद्ध तत्वं न पस्यंति) ते अन्यान मयं मूढा, संसारे दुष दारुनं ॥१४७॥ जब तक शुद्ध तत्व अपने शुद्धात्म स्वरूप को नहीं जानते उसका अनुभव नहीं कुन्यानं तप तप्तं च, रागं विधति ते तपा। करते तब तक (ममतं दुर्गति भाजन) यह मोह मद दुर्गति का पात्र बनाने वाला है। 1 ते तानि मूढ सद्भावं, अन्यानं तप श्रुतं क्रिया॥१४८ ॥ विशेषार्थ- मद- अहंकार अकड़ घमंड को मद कहते हैं, यह मान कषाय के अनेय तप तप्तानं, जन्मनं कोड कोडिभि। अन्तर्गत होते हैं। जब तक यह आठ मद होते हैं, तब तक जीव अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही होता है। यह सम्यकदर्शन के दोष हैं, इनके रहते सम्यक्दर्शन नहीं होता। यह श्रुतं अनेय जानते, राग मूह मयं सदा॥१४९ ।।
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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