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________________ 4 श्री श्रावकाचार जी गाथा-१२९-१३४ ) जो चौर्य या कि अदत्त जड़ का,नेक करते चिन्तवन। रहते हैं। किसी भी सरकारी कर्मचारी, इन्सपेक्टर पुलिस आदि को देखते ही हृदय उनके नियम से, अशुभ हो जाते,हवस्तल के वचन॥ धड़कने लगता है, घबराहट मच जाती है। जो सत्यता ईमानदारी का काम करते । माया कपट में बीतता, उनका सदा ही काल है। हैं, वह निर्भय रहते हैं। धनादि की चाह, लोभ के पीछे ही चोरी की जाती है। यह चौर्य दुर्गति हेतु है,यह चौर्य काल कराल है। * चोरी करना महान अनर्थों की जड़ है। घोर विपदाओं का घर और अशुभ कटु क्रूर वचनालाप करना,चौर्य दोष महान है। २. काम कहा जाता है। इससे यहाँ संसार में भी दु:ख मिलता है, दुर्गति होती है, . जिन वचन का आलोप यह भी, चौर्य है असमान है। बदनामी होती है। चोर का कोई विश्वास नहीं करता और परभव में नरक आदि कुछ अर्थ का कुछ अर्थ करना,यह भी चौर स्तेय है। ६. दुर्गतियों में जाना पड़ता है। करना व्रतों का भंग यह भी,एक चोरी हेय है। , मन से चोरी करने के विचार करना, चिन्तन करना, चोरी की भावना ही सर्वज्ञ ने शुखात्म की रे,जो बहाई धार है। दुर्गति का कारण है क्योंकि यही चौर्यानंद रौद्र ध्यान कहलाता है. जो नरक गति के नर कर उसी में तू रमण, वह ही तुझे सुखसार है॥ ॐबन्ध का कारण है। शुभाशुभ खोटे कर्मों का करना, कुटिल भावों में हमेशा रत जो जिन वचन का लोप कर,प्रतिकूल उनके जायेगा। ॐ रहना भी चोरी है। बिना दी हुई चीज लेना चाहना भी चोरी है। हमेशा अशुद्ध खोटे वह पौर्य के कटुपाश में,बंधकर कुगतियाँ पायेगा। वचन बोलना. खोटे काम कुटिल भाव से करना यह सब चोरी है, जो दुर्गति का निर्मूर्त रत्नत्रयमयी, जो शुद्ध आत्मीक धर्म है। कारण है । यह संसार अपेक्षा जानना, इसका तो नियमपूर्वक त्याग होना ही उस धर्म का जो लोप कर, करता महादुष्कर्म है। चाहिये; परन्तु इसके साथ परमार्थ में भी सतर्क रहना चाहिये क्योंकि दुष्ट अहितकारी वह चौर्य के कटु बंधनों से, बांधता निजगात्र है। S कठोर वचन कहना, जिन वचनों का लोप करना भी चोरी है। अर्थ का अनर्थ करना, संसार में बनता कि वह, नाना कुगति का पात्र है॥ S जिस अभिप्राय से जो बात जैसी कही गई है उसके विपरीत अपने मत पोषण के लिये (चंचलजी) 8 उल्टा सीधा अर्थ बताना जिन वचनों की चोरी है तथा व्रत, नियम,संयम लेकर विशेषार्थ- यहाँ चोरी व्यसन का प्रकरण चल रहा है। व्यसन लत या आदत उनका खंडन करना छोड़ देना या विपरीत आचरण करना, जिनवाणी के विपरीत को कहते हैं। स्वभाव या नशा भी इसी के नाम हैं। किसी की गिरी पड़ी भूली या रखी मनमानी करना भी चोरी है। हुई वस्तु को बिना पूछे उठा लेना, रख लेना चोरी है या किसी के घर में सेंध लगाकर सर्वज्ञ केवली अरिहंत परमात्मा ने निज शुद्धात्म स्वरूप का जो विवेचन घुसना,हिंसा लूटपाट से किसी का धन अपहरण करना चोरी है। छिपकर छिपाकर किया है, सत्ता शक्ति बताई है, वैसा ही अनुभव आचरण करो क्योंकिकोई भी कार्य करना चोरी है। धनादि पर वस्तु का अपहरण ही चोरी का प्रमुख कार्य श्री केवलंन्यान विलोकि तत्वं,सुद्धं प्रकासं सुद्धात्म तत्वं । है। चोरी महापाप है। चौर्यानंद रौद्र ध्यान है। पर के प्राणों के समान ही धन होता है। संमिक्त न्यानं चरनंत सुष्य, तत्वार्थ साधं त्वं दर्सनेत्वं ॥ संसारी जीव का ग्यारहवाँ प्राण धन है। धन का चला जाना प्राणों का चला जाना है श्री केवलज्ञानी परमात्मा ने जो तत्व देखा है, वह मात्र शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म इसलिये परधन का हरण करना उसके प्राण हरण करने के समान महापाप है। 5 तत्व है। जो अनन्त चतुष्टय और रत्नत्रयमयी है। ऐसे प्रयोजनभूत तत्व का तुम भी , संसारी प्राणी धन के अभाव को दु:ख और धन के सद्भाव को सुख मानता है। श्रद्धान करो और देखो। यही सत्य धर्म मुक्ति का मार्ग है। इसके विपरीत जो भी है, चोरी करने वाला हमेशा भयभीत रहता है। उसके भीतर हमेशा आकुलता वह सब अधर्म संसार मार्ग है। यदि जिनेन्द्र परमात्मा के वचनों का लोप करते हो - ९ भय संकल्प-विकल्प चलते रहते हैं। आजकल चोरी, गलत काम करने वाले, अर्थात उनके विपरीत आचरण करते हो। सत्य धर्म के विपरीत अपनी मनमानी रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, चोरबाजारी का काम करने वाले हमेशा दु:खी और भयभीत करते हो, तो यह भी चोरी है और इससे दुर्गति के ही पात्र बनोगे।
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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