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________________ श्री श्रावकाचार जी यहां अपनी बात समझना है। सद्गुरु तो सब स्पष्ट बता रहे हैं। बहिरात्मा जो रौद्रध्यान हो जाता है (कृतं असुद्ध कर्मस्य) शुभाशुभ कर्मों का करना (कूड सद्भाव पुद्गल को देख रहा है, उसकी रचना में लगा है, संसारासक्तधन, स्त्री, पुत्र, परिवार, रतो सदा) कुटिल भावों में सदा रत रहना भी चोरी है। शरीर के विषय भोगों में फंसा है। वह इनकी पूर्ति के लिये पर से मेरा भला होगा, ऐसी (स्तेयं अदत्तं चिंते) बिना दी हुई चीज लेना, चाहना चोरी है (वयनं असुद्धं मिथ्या मान्यता के कारण कुदेव-अदेव आदि की पूजा भक्ति करता है। कुगुरु के जाल सदा) हमेशा अशुद्ध, शुभाशुभ वचन बोलना (हीनकृत कूड भावस्य) खोटे काम में फंसकर नाना प्रकार के कुकर्म-अधर्म आदि करता है। यहां अधर्म के अंतर्गत कुटिल भाव से करना (स्तेयं दुर्गति कारणं) यह सब चोरी है, जो दुर्गति का . आर्त-रौद्र ध्यान, चार विकथा, सप्त व्यसन बताये जा रहे हैं। उनका स्वरूप और कारण है। परिणाम बताया जा रहा है। छूटने मुक्त होने की विधि भी बताई जा रही है। (स्तेयं दुस्ट प्रोक्तंच) दुष्ट अहितकारी कहना भी चोरी है और (जिन वयन आगे चोरी करने के व्यसन के स्वरूप का वर्णन करते हैं , विलोपित) जिन वचनों का लोप करना भी चोरी है (अर्थ अनर्थ उत्पाद्यंते) अर्थ स्तेयं अनर्थ मूलस्य, विटंबं असुह उच्यते । का अनर्थ पैदा करना अर्थात् जो बात जैसी है, उसका उल्टा सीधा अर्थ बताना भी संसारे दुष सद्भाव,स्तेयं दुर्गति भाजनं ।। १२९ ॥ अ चोरी है (अस्तेयं व्रत खंडन) नियम संयम व्रत लेकर उनका खंडन करना, छोड़ देना या विपरीत आचरण, मनमानी करना भी चोरी है। मनस्य चिंतनं कृत्वा, स्तेयं दुर्गति भावना। " (सर्वन्यं मुष वानी च) सर्वज्ञ वीतराग अरिहन्त भगवान के मुखारविंद से कृतं असुद्ध कर्मस्य,कूड सद्भाव रतो सदा ॥१३०॥ प्रगट वाणी के अनुसार (सुद्ध तत्व समाचरेत) शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव करो, स्तेयं अदत्तं चिंते, वयनं असुद्धं सदा। आचरण करो वैसे स्वयं बनो (जिन उक्तं लोपनं कृत्वा) जिनेन्द्र के कहे वचनों का हीनकृत कूडभावस्य,स्तेयं दुर्गति कारणं ॥ १३१ ॥ S लोप करते हो, नहीं मानते (स्तेयं दुर्गति भाजन) यह भी चोरी है, इससे दुर्गति के अपात्र बनोगे। स्तेयं दुस्ट प्रोक्तं च,जिन वयन विलोपितं । (दर्सनं न्यान चारित्र) सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यकचारित्र (मय मूर्ति अर्थ अनर्थ उत्पाचंते, अस्तेयं व्रत खंडनं ॥१३२।। न्यान संजुतं) ज्ञानमयी मूर्ति जो मात्र ज्ञान संयुक्त है (सुद्धात्मा तत्व लोपंते) ऐसे सर्वन्यं मुष वानी च, सुद्ध तत्व समाचरेत् । 2 अपने शुद्धात्मा शुद्ध तत्व का लोप करते हो उसे तो देखते जानते नहीं हो. उसकी जिन उक्तं लोपनं कृत्वा, स्तेयं दुर्गतिभाजनं ॥१३३॥ साधना आराधना नहीं करते और पर में लगे हो (स्तेयं दुर्गति भाजन) यह भी चोरी दर्सन न्यान चारित्रं, मयमूर्ति न्यान संजुतं । . है जो दुर्गति का पात्र बनाती है। चोरी सुनो हे भव्य जन,आपत्तियों का मूल है। सुद्धात्मा तत्व लोपंते,स्तेयं दुर्गति भाजनं ।। १३४ ॥ करती विकल परिणाम यह,उर का खटकता शूल है। अन्वयार्थ- (स्तेयं अनर्थ मूलस्य) अनर्थ की जड़ चोरी करना है (विटंबं असुह इस लोक में तो यह पिलाती है,दु:खों की प्यालिया। एउच्यते) यह महान विपदाओं का घर अशुभ कार्य कहा जाता है (संसारे दुष सद्भाव) उस लोक में भी पर दिखाती,यह कुगति की नालियां। इससे यहां संसार मेंदु:ख मिलता है, दुर्गति होती है (स्तेयं दुर्गतिभाजन) चोरी करना चोरी करूंगा आज मैं,इस भांति करना चिन्तवन। ही दुर्गति का पात्र बनाती है। हे भव्य यह दुर्भावना, करती है दुर्गति का सृजन ॥ (मनस्य चिंतनं कृत्वा) मन से चोरी करने के विचार करना, चिन्तन करना जो इस अशुभतम कर्म में,रहते सदा लवलीन हैं। 9(स्तेयं दुर्गति भावना) चोरी की भावना दुर्गति का कारण है क्योंकि यह चौर्यानन्द उनके हवय छल कपट से, रहते सदैव मलीन हैं।
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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