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________________ ON श्री श्रावकाचार जी गाथा-१२९-१३४O OO सम्यकदर्शन, सम्यज्ञान, सम्यक्चारित्रमयी ज्ञानमूर्ति जो निज शुद्धात्मा है का चिन्तवन करो और सब व्यवहार छोड़ दो, इसी से भव संसार से पार होओगे। यह उसी में लीन रहो। यदि इसका लोप करते हो, और विभावों में पुण्य-पापशुभाशुभ जिनेन्द्र परमात्मा की देशना है। इसके विपरीत जो आचरण करता है, व्यवहार में क्रियाओं में लगते हो, पर पर्याय आदि को देखते हो, मोह, राग-द्वेष आदि में लिप्त , उलझता है. वह अपने शुद्धात्म स्वरूप को लोप करने वाला चोर है। रहते हो, तो यह जिन वचनों की चोरी है और इससे दुर्गति के पात्र बनोगे। बाहर में यहाँ कोई प्रश्न करे कि सब व्यवहार छोड़ दें और आत्मा का चिन्तवन करेंतो यह व्रती श्रावक या महाव्रती साधु हो जाने से क्या होता है ? जिनवाणी के विपरीत २ भव संसार से पार हो जायेंगे, तो यह साधु मुनियों के लिये कहा है कि हम साधारण आचरण करना, अपने शुद्धात्म तत्व का अनुभव न करना और बाहरी प्रपंच में लगे गृहस्थ अव्रती पाप परिग्रह में लगे लोगों के लिये कहा है क्योंकि हम सब व्यवहार रहना या जिन वचनों का लोप करना, महान चोरी है। जिससे दुर्गति के पात्र छोड दें और आत्मा की चर्चा करें तो क्या परिणाम होगा वह तो सब जानते हैं बनोगे। हैं क्योंकि हम तो आत्मा की चर्चा ही कर सकते हैं, चिन्तन,आराधन तो हो ही नहीं इसी बात को योगीन्दुदेव योगसार में कहते हैं सकता क्योंकि सामने कर्म संयोग और मोह-राग का तीव्र सद्भाव है इसलिये इसका सुदधु सचेयणु बुधु जिणु केवलणाण सहाउ। २ स्पष्टीकरण करें? सो अप्पा अणुदिणु मुणहु जइचाहहु सिवलाहु॥२६॥ ॐ इसका समाधान करते हैं कि यहाँ जो चर्चा की जा रही है वह धर्म मार्ग पर यदि मोक्ष पाने की इच्छा करते हो तो निरन्तर ही आत्मा को शुद्ध सचेतन चलने वाले पाप-परिग्रह का त्याग कर महाव्रती साधु होने वालों की अपेक्षा कहा बुद्ध जिन और केवलज्ञान स्वभावमय समझो।। ४ जा रहा है। व्यवहार का त्याग करने के कहने की अपेक्षा यह है कि जो बाहर की जाव ण भावहु जीव तुई, णिम्मल अप्पसहाउ। क्रिया जप,तप,पूजा,पाठ,नियम,संयम,त्यागी साधु आदि होने को धर्म की साधना ताव ण लम्भइ सिवगमणु जहिं भावह तहिं जाउ ॥२७॥ S मान रहे हैं और उसी में लगे हैं. उनसे कहा जा रहा है। अपने शुद्धात्म स्वभाव की हे जीव ! जब तक तू निर्मल आत्म स्वभाव की भावना नहीं करता, तब तक साधना आराधना करो, यह बाह्य की क्रियाकांड में मत उलझो क्योंकि मुक्ति का मोक्ष नहीं पा सकता। अब जहाँ तेरी इच्छा हो वहाँ जा। एक मात्र कारण और आधार तो निज शुद्धात्मानुभूति करना, उसी में लीन रहना है। अप्पा अप्पई जो मुणइ जो पर भाव चएइ। वयतवसंजममूलगुण मूवह मोक्ख ण वुत्ता सो पावइ सिवपुरिगमणु जिणवत एउभणेइ॥३४॥ जाव ण जाणइश्क्क पल सुबउ भाउ पवितु ॥२९॥ जो आत्मा ही आत्मा का चिंतन करता है, जो परभाव को नहीं चाहता वह जब तक अपने एक परम पवित्र शुद्ध स्वभाव को नहीं जानते तब तक हे मूढ ! शिवपुरी में गमन करता है ऐसा जिनवर ने कहा है। ई. यह व्रत, तप, संयम मूलगुण से मोक्ष होना नहीं कहासय्य अचेयण जाणि जिय एक्क सचेयणु सात। जो णिम्मल अप्पा मुणइ वय संजम संजुत्तु । जो जाणेविणु परममुणि लहु पावइ भवपारु॥३६॥ तो लहु पावइ सिद्ध सुहुइउ जिणणाह, वुत्तु ॥३०॥ जितने भी पदार्थ हैं वे सब अचेतन हैं। चेतन तो केवल एक जीव ही है और जिनेन्द्र देव का कथन है कि जो जीव व्रत, संयम से युक्त होकर अपने निर्मल वही सारभूत है। उसके जाने बिना परम मुनि भी भव संसार से पार नहीं हो 5 आत्मा को ध्याता है तो वह शीघ्र ही सिद्धि सुख को पाता है। सकते। यहाँ हमें भी इस बात को समझना है कि हम यह जो पाप-परिग्रह में लगे जइणिम्मलु अप्पा मुणहि छडिवि सहु ववहारु। हैं। मोह-राग में फँसे हैं तो इसका परिणाम क्या होगा? नरक निगोद जाना पड़ेगा X जिण सामिउ एमइ भणइ लहु पावहु भवपारु॥३७॥ और वहाँ कैसे-कैसे दु:ख भोगना पड़ते हैं, यह जिनवाणी के द्वारा सब जानने में जिन स्वामी जिनेन्द्र परमात्मा ऐसा कहते हैं कि हे भव्य ! अपने निर्मल आत्मा आ रहे हैं, हम पर के पीछे मोह-राग और पाप-परिग्रह कर रहे हैं, तो क्या यह eckonerrorrecate
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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