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________________ आत्मा का विमल स्वभाव जयवंत हो। आत्मा का स्व स्वभाव ज्ञानमयी है, इसी । 'च' वर्ग का पांचवां अक्षर 'ञ' है। यहां उसके स्थान पर 'न' के रूप में आत्म स्वभाव में रहने से आत्मा समस्त कर्म मलों की प्रकृतियों से मुक्त हो जाता विचार किया गया है। आत्मा अनंत ज्ञानादि गुणों का भंडार है, जो कोई भव्य जीव परम श्रद्धा सहित अपने आत्म स्वरूप का अनुभव करते हैं, उनका संसार में यहां 'ज' अक्षर के द्वारा जिन वचनों की और आत्म स्वभाव की महिमा जन्म-मरण परिभ्रमण करना छूट जाता है। शुद्ध स्वभाव में रहने से कर्म मल भी बताई गई है और यह स्पष्ट किया है कि इसी महिमामयी स्वभाव में रहने पर कर्मों क्षय हो जाते हैं। यही 'ञ' अक्षर का सार है। की निर्जरा और मुक्ति की प्राप्ति होती है। अपने आत्म स्वभाव का बहुमान और आल्हाद रूप सुखानुभव करते हुए आचार्य श्री जिन तारण स्वामी ने श्री भय षिपनिक ममलपाहुड ग्रंथ के फूलना क्रमांक १५३ में कहा है टंकोत्कीन ममलं, मल संसार सरनि विलयं च। "जय जयना ले,जय जयो जिनेन्द्र जयना ले॥" अप्प सहाव सुदिहूँ, निद्दिटुं संजदो रुवं ॥ ७४०॥ अर्थ- जय हो, जय हो जिनेन्द्र स्वभाव की जय हो, हे आत्मन् ! अपने अर्थ- आत्मा का ममल स्वभाव टांकी से उकेरे हुए चिन्हों के समान सुस्पष्ट जिनेन्द्र स्वभाव को जीत ले। प्रत्यक्ष अनुभव गम्य है, जिसमें संसार में परिभ्रमण कराने वाला कोई भी कर्ममल और रागादि विकार नहीं है। ऐसे परम शुद्ध आत्म स्वभाव को जो भले प्रकार झ देखते अर्थात् अनुभव करते हैं, यही संयमी साधु का स्वरूप कहा गया है। मान सहावं सुद्ध, धम्म सुक्क मान निम्मलय । 'ट' अक्षर का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए यहां कहा गया है कि आत्मा कम्म कलंक विमुक्क,न्यानमइमानारुढ़ संजुत्तो ॥ ७३८॥ टंकोत्कीर्ण ममल स्वभावी है, जो त्रिकाल शुद्ध है और अपने स्वरूप से प्रत्यक्ष अर्थ-शुद्ध स्वभाव का ध्यान धारण करो। धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान । प्रगट आनंदमयी है। ऐसे सत्स्वरूप की साधना, आराधना में निरंतर तल्लीन ही निर्मल ध्यान है, जो सम्यक्दृष्टि ज्ञानी भव्य जीव ज्ञानमयी आत्म स्वभाव के रहते हैं, उनको ही संयमी कहा जाता है। ध्यान में आरूढ़ होते हैं, अपने स्वभाव में लीन होते हैं, वे कर्मों के कलंक से छूट जाते हैं। सम्यकदर्शन ज्ञानपूर्वक होने वाला ध्यान सच्चा ध्यान है। इसको ही धर्म ठानं झानं झायदि, झायदि सुद्धं च ममल न्यानस्य । ध्यान और शुक्ल ध्यान कहते हैं। यहां 'झ' अक्षर द्वारा शुद्ध स्वभाव का ध्यान झायंति सुब भावं,कम्म मल तिक्त असुह संसारे ॥ ७४१॥ धारण करने की प्रेरणा देते हुए कहा है कि शुद्धात्म स्वरूप के ध्यान के बल से कर्म अर्थ- सम्यक्दृष्टि ज्ञानी वीतरागी साधु हर स्थान में अथवा छटवें आदि क्षय हो जाते हैं और परमात्म पद की प्रगटता होती है। हर गुणस्थान में आत्म ध्यान को ध्याते हैं, ममल ज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव का ध्यान धारण करते हैं। निरंतर शुद्ध भाव के ध्यान में ही लीन रहते हैं। जिससे ञ पुण्य-पाप आदि कर्म मलों से पृथक् हो जाते हैं। नंतानंत सुविह, नत संसार सरनि विलयन्ति । यहां 'ठ' अक्षर का सार बताते हुए कहा है कि साधु हर गुणस्थान में अथवा विलयंति कम्म मलयं,न्यान सहावेन सुबभावंच॥ ७३९॥ साधुओं के गुणस्थान छह से बारह तक होते हैं, इन गुणस्थानों में वे अपने आत्म अर्थ- अनंतानंत ज्ञानादि गुणोंमयी अपने आत्म स्वभाव को देखो, इसी स्वरूप का ध्यान करते हुए धर्म,शुक्लध्यान कोध्याते हुए शुद्धोपयोग की निर्मलता का अनुभव करो, इससे अनंत संसार में होने वाला जन्म-मरण परिभ्रमण विला के बल से चार घातिया कर्म का नाश करके केवलज्ञानी परमात्मा हो जाते हैं, फिर जाता है। ज्ञान स्वभाव के आश्रय से शुद्ध भाव में रहने पर समस्त कर्म मल विला । तीसरे, चौथे शुक्ल ध्यान के बल से चार अघातिया कर्मों को क्षय करके सिद्ध जाते हैं अर्थात् निर्जरित क्षय हो जाते हैं। परमात्मा हो जाते हैं और इस जन्म-मरण रूप संसार चक्र से हमेशा के लिए छूट जाते हैं। १४४ १४५ ठ
SR No.009720
Book TitleOm Namo Siddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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