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________________ से उत्पाद व्यय धौव्य की एकता रूप अनुभूति लक्षण युक्त सत्ता सहित है और चैतन्य स्वरूपमय होने से नित्य उद्योत रूप निर्मल स्पष्ट दर्शन, ज्ञान ज्योति स्वरूप है क्योंकि चैतन्य का परिणमन दर्शन, ज्ञान स्वरूप है। एक ही समय में परिणमन करना और जानना आत्मा का स्वभाव है, इसी को यहां गमन स्वभाव कहा गया है, इसी को जानना पहिचानना इष्ट और प्रयोजनीय है, यही 'ग' अक्षर का सार है। घ घ घाय कम्म मुक्कं, धन असमूह कम्म निहलनं । घन न्यान झान सुद्धं,सुद्ध सरुवं च सुद्धमप्पानं ॥ ७३३॥ अर्थ- 'घ' अक्षर कहता है कि आत्मा के साथ अनादिकाल से प्रवाह रूप बंधे चले आये हुए ज्ञानावरण आदि घातिया कर्म का नाश करो, इससे मुक्त हो । जाओ, अत्यंत प्रगाढ़ रूप से बांधे हुए अनंत कर्मों के समूह को क्षय करो, इसके लिए ज्ञान घन स्वरूप शुद्धात्मा का ध्यान धारण करो इसी से अपना शुद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा प्रगट प्रकाशमान होगा। यहां 'घ'अक्षर के द्वारा अपने ज्ञान घन स्वरूप शुद्धात्मा का ध्यान धारण कर कर्मों को क्षय करने की प्रेरणा दी गई है। च चेयन गुन संजुत्त, चित्तं चिंतयन्ति तियलोयं । गय संकप्प वियप,चेयन संजुत्त अप्प ससरुवं ॥ ७३५॥ अर्थ-चैतन्य गुण से संयुक्त होना ही प्रयोजनीय है, यही साधक का मुख्य लक्ष्य है। धर्म ध्यान की साधना के अंतर्गत चित्त तीन लोक के स्वरूप का चिंतन, विचार करता है परंतु जब चित्त संकल्प-विकल्प से रहित होता है तब चैतन्य गुणमयी अपना निज स्वरूप अनुभव में आता है। यहां 'च' अक्षर का अभिप्राय बताते हुए कहा है कि ज्ञान की सूक्ष्म पर्याय का नाम चित्त है, जो कर्मादि संयोग के कारण अशुद्ध हो रहा है। साधक धर्म ध्यान की साधना के अंतर्गत चित्त को धर्म की साधना, आराधना में लगाते हैं और संस्थान विचय धर्मध्यान के अंतर्गत तीन लोक के स्वरूप का चिंतन करते हैं, तब तक सविकल्प दशा रहती है परंतु स्वभाव के लक्ष्य से आत्मोन्मुखी होकर चित्त को अपने स्वभाव में एकाग्र करते हैं तब समस्त संकल्प-विकल्प का अभाव हो जाता है और चैतन्य गुणमयी निज स्वरूप ही अनुभव में आता है। ड नाना प्रकार सुद्ध,न्यानं झानं च सुद्ध ससरुवं । निदलंति कम्म मलयं,नंतानंत चतुस्टयं ममलं ॥ ७३४॥ अर्थ- आत्मा अनेक प्रकार से शुद्ध है अर्थात् संशय, विभ्रम, विमोह आदि । दोषों से रहित है, निश्चय से द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म भी आत्मा के स्वभाव में नहीं हैं, इसी शुद्ध ज्ञानमयी स्व स्वरूप का ध्यान धारण करो। सम्यक्ज्ञान । सहित अपने शुद्ध स्वरूप का ध्यान कर्मरूपी मल को नाश कर डालता है तथा अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्य का प्रकाश कर देता है। यहां 'ङ' अक्षर पर विचार किया है, जिसको 'न' के रूप में ध्यान में लेकर नाना प्रकार से शुद्ध अपने ज्ञानमयी स्वरूप के ध्यान की महिमा बताई है कि अपने शुद्धात्म स्वरूप के ध्यान से ही कर्म मल का अभाव होता है और अनंत चतुष्टय का प्रकाश हो जाता है। छ छै काय क्रिया जुत्तं, क्रिया ससहाव सुद्ध परिनाम । संसार विषय विरयं, मल मुक्कं दंसनं ममलं ॥ ७३६॥ अर्थ-जो साधक छह काय के प्राणियों के प्रति दया भाव रखता है, अपने स्व स्वभाव के आश्रय से शुद्ध परिणाम पूर्वक क्रिया अर्थात् व्यवहार आचरण का पालन करता है, वह संसार के विषय विस्तार से विरत रहता हुआ रागादि मलों से रहित अपने ममल स्वभाव का दर्शन करता है। यहां 'छ' अक्षर का सार यह है कि छह काय के प्राणियों पर दया भाव रखो । शुद्ध भाव पूर्वक अहिंसामयी व्यवहार आचरण का पालन करो। जो साधु अथवा साधक इस प्रकार चारित्र का पालन करते हैं वे सांसारिक प्रपंचों से विरक्त रहते हुए अपने ममल स्वभाव का दर्शन करते हैं। ज जैवतं जिनवयन, जयवंतं विमल अप्प सहावं । कम्म मल पयडि मुक्क, अप्प सहावेन न्यान ससहावं ।। ७३७॥ अर्थ-जिन वचन अर्थात् जिनवाणी जयवंत हो। उस वाणी के द्वारा प्रगट १४३ १४२
SR No.009720
Book TitleOm Namo Siddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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