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________________ ड डंड कपाटं दिनं दिनं विमल दंसनं सुद्धं । निध्यात राग विलयं, संसारे तजंति मोहंधं ॥ ७४२ ॥ अर्थ- केवली समुद्घात में डंड कपाट प्रतर लोकपूर्ण करने वाले अरिहंत परमात्मा को जिसने जाना है, उसने ही दोष रहित शुद्ध सम्यक्दर्शन को अनुभव किया है अर्थात् अपने आत्म स्वरूप को जाना है, उस जीव का मिथ्यात्व, राग विला जाता है, संसार में कारणभूत मोहरूपी अंधकार को वे तज देते हैं अर्थात् निश्चय ही उनका मोह टूट जाता है। यहां 'ड' अक्षर का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री जिन तारण स्वामी कहते हैं कि जो जीव अरिहंत भगवान को यथार्थ रूप से जानता है, वह अपने आत्म स्वरूप को जानता है, उसका मिथ्यात्व राग, मोहांध छूट जाता है। आचार्य कुंदकुंददेव ने भी इसी अभिप्राय को व्यक्त करते हुए प्रवचनसार में कहा है. जो जाणदि अरहंतं, दव्वत्त गुणत्त पजयत्तेहिं । - सो जाणदि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥ ८० ॥ अर्थ- अरिहंत भगवान को जो द्रव्य, गुण और पर्याय से जानता है, वह अपने आत्मा को जानता है, निश्चय ही उसका मोह क्षय को प्राप्त होता है। ट ठ परमप्पा झानं न्यान सरुवं च अप्प सभावं । विकहा कषाय विषय, अप्पा परमप्प भावना सुद्धं ॥ ७४३ ॥ अर्थ- अपना आत्म स्वभाव ज्ञान स्वरूपमय है, यही परमात्मा है, इसका ध्यान करो, 'ढ' अक्षर का सार यही है। मैं आत्मा परमात्मा हूं ऐसी शुद्ध भावना भाने से विकथा और कषाय आदि विकार छूट जाते हैं। जैसे वर्णमाला में बच्चों को 'ढ' का ढक्कन पढ़ाया जाता है, अध्यात्म में उसका भाव यह है कि मैं आत्मा परमात्मा हूं, ऐसी शुद्ध भावना सहित अंतर में परमात्म स्वरूप के ध्यान का ढक्कन लगा दो, जिससे विकथा, कषाय आदि के विकार अंदर प्रवेश न करें। ण नाना प्रकार दिई, न्यानं ज्ञानेन सुद्ध परमिस्टि । न्यानेन न्यान सुद्धं, न्यान सहावेन सुद्ध ससहावं ॥ ७४४ ॥ अर्थ- नाना प्रकार से देखो तब भी एक ही बात प्रगट होती है कि परमेष्ठी १४६ स्वरूप शुद्धात्मा के ध्यान से ही ज्ञान प्रकाशित होता है। ज्ञान से ही ज्ञान की शुद्धि होती है, ज्ञान स्वभाव के आश्रय से अपना शुद्ध स्व स्वभाव अनुभव में झलक जाता है। यहां 'ण' अक्षर को 'न' के रूप में चिंतन करते हुए उसका सार बताया है कि नाना प्रकार से देखने पर भी एक मात्र शुद्ध स्वभाव में उपयोग लगाना ही प्रयोजनीय है, यही परमेष्ठी स्वभाव है, इसी के ध्यान से ज्ञान प्रगट होता है। साधना के मार्ग की विशेषता बताते हुए यहां सद्गुरु कहते हैं कि ज्ञान से ही ज्ञान की शुद्धि होती है। ज्ञान स्वभाव के आश्रय से ही स्वानुभव प्रसिद्ध होता है। त तरंति सुद्ध भावं तिक्तं तिय भाव सयल मिच्छत्तं । . अप्पा परु पिच्छंतो, तरंति संसार सायरे घोरे ।। ७४५ ॥ अर्थ- शुद्ध भाव ही जीव को संसार से तारने वाला है, जिन सम्यकदृष्टि, ज्ञानी, आत्मार्थी, भव्य आत्माओं के जीवन में तीनों प्रकार के समस्त मिथ्यात्व भाव छूट गए हैं, वे आत्मा और पर को यथार्थ रूप से पहिचानते हुए घोर संसार सागर से तिर जाते हैं अर्थात् संसार रूपी समुद्र से पार हो जाते हैं। पर्याय बुद्धि मिथ्यात्व है, स्वभाव दृष्टि सम्यक्त्व है। शुभ-अशुभ भाव, पुण्य-पाप कर्म बंध के कारण हैं, शुद्ध भाव जीव को संसार से पार लगाने वाला है। जिन आत्मार्थी, ज्ञानी सत्पुरुषों ने तीनों प्रकार के मिथ्यात्व भाव का त्याग कर दिया है वे भेदज्ञानपूर्वक स्व-पर को यथार्थ जानते और अनुभव करते हैं, उनको ही शुद्ध भाव प्रगट होता है, इसी शुद्ध भाव से ज्ञानीजन घोर संसार रूपी समुद्र से पार होकर तिर जाते हैं। इस प्रकार यहां 'त' अक्षर का अभिप्राय स्पष्ट किया गया है । थ थानं च सुद्ध ज्ञानं, तिअर्थ पंचदीति थान सुद्धं च । मिथ्या कुन्यान तिक्तं न्यान सहावेन थान सुद्धं च ।। ७४६ ॥ . अर्थ- शुद्ध आत्मा का ध्यान ही स्व स्थान है, इसी शुद्ध स्थान अर्थात् निर्विकल्प ध्यान में तिअर्थ (रत्नत्रय) और पंच परमेष्ठी पदों का प्रकाश होता है, यहां मिथ्यात्व और कुज्ञान नहीं रहते। ज्ञान स्वभाव में लीन होने से परम शुद्ध स्थान जो मोक्ष है, वह प्राप्त हो जाता है। यहां 'थ' अक्षर का अभिप्राय बताया है कि आत्म ध्यान ही स्व स्थान १४७
SR No.009720
Book TitleOm Namo Siddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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