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________________ २३१] [मालारोहण जी प्रश्नोत्तर] [ २३२ * सम्यग्दर्शन सम्बन्धी प्रश्नोत्तर * प्रश्न १-सम्यग्दर्शन के लिए कैसा प्रयत्न होता है? समाधान- पहले तो अन्तर में आत्मा की बहुत प्रतीति जागे। सद्गुरू का समागम करके तत्व का बराबर निर्णय करना। संसार को दुःख रूपजानकर दिन-रात अन्तर में गहरा-गहरा मन्थन करके भेदज्ञान का अभ्यास करना। बार-बार भेदज्ञान का अभ्यास करते-करते जब हृदय में उत्कृष्ट आत्म स्वरूप की महिमा आये, तब उसका निर्विकल्प अनुभव होता है और उस अनुभव में सिद्ध भगवान जैसा आनन्द का वेदन होता है। उसकी महिमा अपार है। प्रश्न २-सम्यग्दर्शन होने वाले जीव के अन्तरंग बहिरंग कारण क्या है? समाधान - सम्यग्दर्शन होने वाले जीव के अन्तरंग कारण १.निकट भव्यता २. सम्यक्त्व के प्रति बाधक मिथ्यात्व आदि कर्मों का यथायोग्य उपशम, क्षय, क्षयोपशम ३. उपदेश आदि ग्रहण करने की योग्यता ४. संज्ञित्व (पंचेन्द्रिय - सैनी छहों पर्याप्ति से पूर्ण)५.परिणामों की शुद्धि (करणलब्धि)। बहिरंग कारण - सद्गुरूओं का उपदेश, संसारी वेदनादि भय । प्रश्न३-सम्यग्दर्शन होते समय क्या होता है? समाधान- जब काललब्धि आदि के योग से भव्यत्वशक्ति की व्यक्ति होती है तब यह जीव सहज शुद्ध पारिणामिक भाव रूप निज परमात्म द्रव्य के सम्यग्श्रद्धान,सम्यग्ज्ञान और सम्यग्अनुचरण रूप पर्याय से परिणत होता है। इस परिणमन को आगम की भाषा में औपशमिक या क्षायोपशमिक या क्षायिक भाव कहते हैं किन्तु अध्यात्म की भाषा में उसे शुद्धात्मा के अभिमुख परिणाम शुद्धोपयोग आदि कहते हैं। यह अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल शेष रहने पर करणलब्धि सहित ही होता है। सम्यग्दर्शन, दर्शन मोहनीय की मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यग्प्रकृति मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात कर्म प्रकृतियों के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से होता है। यह आत्मा के श्रद्धा गुण की निर्मल पर्याय है इसीलिये इसे आत्मा का मिथ्या अभिनिवेश से शुन्य आत्म रूप कहा है। यह चौथे गुणस्थान के साथ प्रगट होता है। निर्विकल्प स्व संवेदन, अतीन्द्रिय आनन्द एक अपूर्व अवक्तव्य शान्त दशा होती है। पूर्ण प्रकाश मयी परमात्म स्वरूप अनुभव में आता है। प्रश्न ४ -सम्यग्दर्शन होने पर क्या होता है? समाधान - रागादि से भिन्न चिदानन्द स्वभाव का भान और अनुभव हुआ, वहाँ धर्मी को उसका नि:संदेह ज्ञान होता है कि मुझे आत्मा का कोई अपूर्व आनन्द का वेदन हुआ, सम्यग्दर्शन हुआ, आत्मा में से मिथ्यात्व का नाश हो गया, यह दृढ प्रतीति हो जाती है। जा सम्यक् दृगधारी की मोहि, रीति लगत है अटापटी। बाहर नारकी कृत दु:ख भोगत, भीतर सम रस गटागटी॥ सम्यग्दर्शन होने पर अट्ठावन लाख योनियों के जन्म मरण का चक्र छूट जाता है। ४१ प्रकृतियों की बन्ध व्युच्छित्ति हो जाती है फिर वह स्त्री पर्याय में नहीं जाता, नपुंसक नहीं होता, सम्यग्दर्शन से पूर्व आयु बंध हो गया हो तो प्रथम नरक या तिर्यच गति जाता है, वरना सीधा देवगति और मनुष्य गति में उच्च, श्रेष्ठ, कुलीन, होता हुआ अधिक से अधिक दश, पन्द्रह भव में मोक्ष चला जाता है। प्रश्न ५-सम्यग्दृष्टि क्या करता है? समाधान- आत्मा के ज्ञानानन्द स्वभाव सन्मुखता की रूचि पूर्वक बारह भावनाओं का चिंतवन कर अन्तर एकाग्रता बढ़ाता है। सम्यग्दृष्टि- भय से, आशा से, स्नेह से अथवा लोभ से, कुदेव, अदेव, कुशास्त्र तथा कुगुरू की श्रद्धा, विनय, भक्ति नहीं करता। सुबुद्धि विवेक का जागरण होने से विवेक पूर्वक आचरण करता है। सम्यग्दृष्टि पर द्रव्यों को बुरा नहीं मानता, वह तो अपने मोह, राग-द्वेष भाव को ही बुरा मानता है और उन्हें तोड़ने, दूर करने का प्रयास करता है। सम्यग्दृष्टि को ज्ञान वैराग्य की ऐसी शक्ति प्रगट होती है कि ग्रहस्थाश्रम में होने पर भी सभी कार्यों में स्थित होने पर भी लिप्त नहीं
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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