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________________ २२९] [मालारोहण जी गाथा क्रं.३२] [ २३० कीजीव की पात्रता, सम्यग्दर्शन द्वारा संसार के परिभ्रमण से मुक्त होकर परमानन्द मयी परमात्म स्वरूप होना ही इष्ट प्रयोजनीय है। इस सत्य वस्तु को बताने वाले जिनेन्द्र परमात्मा भगवान महावीर की दिव्य देशना को सदगुरू निर्ग्रन्थ वीतरागी संत श्री जिन तारण-तरण मंडलाचार्य महाराज ने प्रतिपादित किया । जो भव्य जीव इस सत्य वस्तु स्वरूप निज शुद्धात्म तत्व रत्नत्रयमयी ज्ञान गुणमाला को धारण करेंगे, वह संसार के जन्म-मरण के चक्र से छूटकर सिद्ध परमात्मा होंगे। टीकाकार की लघुता अल्पज्ञ मतिमन्द होने पर भी सद्गुरू की श्रद्धा भक्ति वश यह टीका करने का साहस किया है, जो भूल चूक हो ज्ञानी जन क्षमा करें। तो जीव की अज्ञानता के कारण चल रहा है। जब जीव जागता है तो फिर कोई जाति सम्प्रदाय मान्यता बाधक नहीं बनती,जीव की अन्तर भावना जागे तो कहीं से भी, कैसे भी आत्मोन्मुखी हो सकता है, इसके लिये एक मात्र सत्संग सहकारी है। दु:ख की निवृत्ति सभी जीव चाहते हैं और दुःख की निवृत्ति-जिनसे दु:ख उत्पन्न होता है, ऐसे राग-द्वेष और अज्ञान आदि दोषों की निवृत्ति होने से ही सम्भव है और राग-द्वेष अज्ञान की निवृत्ति एक आत्मज्ञान के सिवाय किसी दूसरे प्रकार से कभी तीन काल में हो नहीं सकती। ऐसा सभी ज्ञानी पुरूष कहते हैं इसलिए आत्म ज्ञान ही जीव के लिए प्रयोजन रूप है. उसका सर्वश्रेष्ठ उपाय-सद्गुरू वचन का श्रद्धान करना, श्रवण करना या सत्शास्त्र का स्वाध्याय विचार करना है। इसके लिए जीव को सभी प्रकार के मत-मतांतर कुल धर्म, लोक व्यवहार, रूढ़िगत मान्यताओं के प्रति उदासीन होकर सत्संग द्वारा धर्म का सही स्वरूप समझ कर अपने आत्म स्वरूप का विचार निर्णय करना चाहिए। सत्समागम, सत्शास्त्र और सदाचारी जीवन होना यह आत्मोपलब्धि के प्रबल अवलम्बन हैं । मल, विक्षेप और अज्ञान ये जीव के तीन दोष हैं - मल-कर्मावरण, विक्षेप - संस्कार, अज्ञान - अनादि मिथ्यात्व । ज्ञानी पुरूषों के वचनों की प्राप्ति होने पर उनका यथायोग्य विचार होने से अज्ञान की निवृत्ति होती है। संसार अनादि अनन्त है और जीव भी अनादि अनन्त है, इसमें किसी की अपेक्षा की बात नहीं है। नीच, चांडाल. पापी जीवों को भी सम्यग्दर्शन हो सकता है, हुआ है। इसमें बाहर की परिस्थिति साधक बाधक नहीं है,जीव की पात्रता, पुरूषार्थ होनहार की बात है। मुक्ति का मूल आधार, सम्यग्दर्शन निज शुद्धात्मानुभूति होना ही है। सभी ज्ञानी पुरूषों का एक ही मत है। ज्ञान बिना मुक्ति नहीं होती, ज्ञानी की भाषा, शब्द, कहने, समझाने का ढंग अलग हो सकता है, पर अभिप्राय सबका एक ही होता है। इस प्रकार रत्नत्रयमयी ज्ञान गुणमाला की विशेषता उपलब्धि होने दिनांक- ११.१.९१ बरेली ज्ञानानन्द - जब तक यह जीव शुद्ध सम्यकदर्शन प्राप्त नहीं करता तब तक संसार में भटकता है, सम्यकदर्शन होते ही संसार से मुक्त होने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। जिस पुरूष के हृदय में सम्यक्त्व रूपी जल का प्रवाह निरंतर प्रवर्तमान है, उसके कर्म लपी रज-धूल का आवरण नहीं लगता तथा पूर्व काल में जो कर्म बंध हुआ है वह भी नाश को प्राप्त होता है। "चेतना लक्षणो धर्मो" आत्मा का चैतन्य लक्षण स्वभाव धर्म है।
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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