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________________ श्री ममल पाहुड जी-विषयवस्तु अनुयोग ४ - प्रथमानुयोग - दिस्टि, करनानुयोग - आकर्न, चरनानुयोग - कमल, दिव्यानुयोग - सुर्य अस्कंध। अतिशय ३४ - जन्म के १०- जित निषित (खेद का अभाव), निर्मलत्व (मल का अभाव), पिरि गौरामु (दूध रुधिर सम), आदि संहरन (वजषभनाराच संहनन), आदि संस्थान (सम चतुरस्र संस्थान), सुंदर रूप (सुंदर रूप), सुगंधता (सुगंधतन), सुइ लक्षण (क्षायिक गुण, १००८ लक्षण), अनंत वीर्य (अतुल्य बल), हितमित अस्तौतिक (मिष्ट वचन) । केवलज्ञान के १०- गौसति चरिय सुभिष्यं (चहुं ओर सुभिक्ष), अभय बाधा रहित (जीव वध नहीं), गगन गमनं च (आकाश में गमन), आहार रहित (कवलाहार नहीं), चतुर्मुखं (चतुर्मुख पना), सर्व विधि स्वामी (ईश्वरत्व), छायारहित (छायारहित), देवदिष्टि (अपलक दृष्टि), दिप्ति दिस्टि (उपसर्ग का अभाव), नष केस अविधं (नख केश वृद्धि का अभाव)। देवकृत १४ - मन अधिमोय (अर्धमागधी भाषा), सर्व न्यान सुइ मैत्री (वैर रहित पना), सिध रतौ पुहप फलियं (सर्व ऋतु के फल फूल होना), महिय देसवंत (पृथ्वी दर्पण सम), वाय सुगंध (सुगंधित हवा), परम आनंद (जन मन हर्ष), धूलि कंटक रहित (धलि कंटक रहित भूमि), तिन रहित भूमि (तृण रहित भूमि), गंधोदक वृष्टि (गंधोदक की वर्षा), परम आनंद पद विंद (कमलों पर गमन), अवयास निर्मल (निर्मल आकाश), दिग देस निर्मल (जल की वर्षा), देवता अन्याकारी (आठ मंगल द्रव्य, धर्म चक्र), धर्म औकास (जय जय शब्द)। प्रातिहा - अशोक वृष - दिष्टि, सुर पुहप वृष्टि - आकर्न, दिव्य धुनि - सुर्य अस्कंध, चवर चरन - कमल, आसन सिंहासन - कण्ठ, छत्रत्रय - हितकार, भामण्डल- सहकार, दंदही शब्द - गुपित। न्यान श्री लक्षण ५ - हरिष गात्र, मुकिल नेत्र, गलित वस्त्र, उज्ज्वल, ईर्जा सुभाउ (इर्ज प्रकृति)। दूसरे प्रकार से - हरिष गात्र, मुकिल नेत्र, विगसत वदन, गलित वस्त्र, कलित शब्द, उपशम चित्त। परिग्रह २४ - बाह्य १० - सिंहासन, गृह, क्षेत्र, सुवर्ण, धनधान्य, कुप्य, भांड (वर्तन), दुपद, चतुपद, जानस । आभ्यंतर १४ - मिथ्या, समय मिथ्या, राग, दोष, श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ । बारह पयोग परिनाम -न्यान ८ - मति न्यान के दस लाष कोडि परिनाम, श्रुत न्यान के बीस लाष कोडि परिनाम, अवधि न्यान के चालीस लाष कोडि परिनाम, मन पर्जय न्यान के चौदह सहस लाष कोडि परिनाम, केवल न्यान के लषि लषि कोडि परिनाम, कमल उत्पन्न मति - सौ लाष कोडि परिनाम, कमल उत्पन्न श्रुत - दो सौ लाष कोडि परिनाम, कमल उत्पन्न औकास निधि - चार सै लाष कोडि परिनाम । दर्सन ४-चष्य दर्सन-सहस लाष कोडि परिनाम, अचष्य दर्सन-दोई सहस लाष कोडि परिनाम, अवधि दर्सन - चारि सहस लाष कोडि परिनाम, केवल दर्सन- अनन्त। दिप्ति - अर्क दिप्ति, विंद दिप्ति, सुवन दिप्ति, अवयास दिप्ति, चरन दिप्ति, कलन दिप्ति, कमल दिप्ति, हितकार दिप्ति, गुपित दिप्ति। कवाय चौकड़ी- जनरंजन राग - चार विकथा, कलरंजन दोष - अब्रह्म १० प्रकार, मनरंजन गारव - आठ मद, दर्शन मोहंध - २५ मल। तत्व चार प्रकार - तत्व - दृष्टि का विषय, पदार्थ - न्यान का विषय, द्रव्य - चारित्र का विषय, अस्तिकाय-तप का विषय । पात्र का लक्षण - चरन चरिय, ममल गात्र, औकास समल न कहै, बोले तो न बोले, तीन अर्थ, षट् कमल। परमेष्ठी २४ - उत्पन्न अर्थ परमेष्ठी १२ - इष्ट, उष्ट, इष्ट दर्स, उत्पन्न दर्स, जीव द्रव्य, गम्य अगम्य, इष्ट नेत्र, उत्पन्न नेत्र, इष्ट भय विली, उत्पन्न भय विली, सुर्क अर्थ विंद। हितकार अर्थ परमेडी - इष्ट विपक, उत्पन्न विपक, इष्ट आयरन, उत्पन्न आयरन, इष्ट संस्थान, उत्पन्न संस्थान । सहकार अर्थ परमेडी-गहिर, गुप्त, इष्ट जिन, उत्पन्न जिन, इष्ट पद, उत्पन्न पद। (परमेष्ठी चौबीस में उत्पन्न अर्थ, हितकार अर्थ, सहकार अर्थ यह सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्र से संबंधित साधना है, रत्नत्रय के विशेष अनुभव उपरोक्त शब्दों द्वारा स्पष्ट किये गये हैं।)
SR No.009713
Book TitleAdhyatma Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
PublisherTaran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
Publication Year
Total Pages469
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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