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________________ श्री ममल पाहुइ जी-विषयवस्तु क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र। सम्यग्दर्शन के ८ अंग - निःशंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ दृष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना। सम्यग्दर्शन के गुण-संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य, अनुकंपा। सिडक ८ गुण - क्षायिक सम्यक्त्व, केवल दर्शन, केवल ज्ञान, अगुरुलघुत्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, वीर्यत्व, निराबाधत्व। उत्पन्न सोलही-निवंतरे ९ - न्यान, दर्सन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, संमिक्त, चारित्र । पंचोत्तरे ५ - दिस्टि, शब्द, कमल, सुयं अस्कंध, अमिय । ग्रीवक ३- कलन, चरन, रमन । हितकार सोलही-वे काए -२, वे फासे -२, चौ रूवे - ४, चौ शब्दे - ४, चौ मन पर्जये-४। विपक सोलही - अस्कंध धुरा - ३, कुन्यान हनित -३, विन्यान वाह - १, पद उत्पन्न चेत -३, हितकार उत्पन्न ठहकार -३। । जान सोलही- कमल लंकृत लीन -३, चेत जान टल - ३, अटल धन अस्मूह - ३, छाया रहित तत्काल -२, अंकुर पांच - ५। इंछ सोलही - उत्पन्न हितकार सहकार -३, दर्शन ज्ञान चारित्र - ३, ऊर्ध मध्य अर्ध-३, उवन ठिदि-१, मुक्ति ठिदि-१, न्यान ठिदि-१। इस प्रकार सोलही का उल्लेख श्री ममलपाहुड जी ग्रन्थ में मिलता है जो अध्यात्म साधना का विषय है। सोलहनाते-बाप, पिता, माता, जननी, अइया (आई), महतारी, भइया, बहिन, बेटा, बेटी, सास, ससुर, स्त्री, ग्रहिनी, सारी, मित्र । कल्याणक-५-गर्भ कल्याणक - हृदय, जन्म कल्याणक- कमल, तप कल्याणक - आकर्न, न्यान कल्याणक-दिष्टि, निर्वाण कल्याणक-सुर्य अस्कंध। तत्व २७-७ तत्त्व - जीव, अजीव, आसव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष । ९पदार्थ - जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आम्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष । ६ द्रव्यजीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल । ५ अस्तिकाय - जीवास्तिकाय, श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी अजीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय।। धर्म के लक्षण १० - उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य। विशा १०-पूर्व (उत्पन्न सिर), आग्नेय (सुर्क), दक्षिण (दिस्टि), नैरित्य (कमल), पश्चिम (हृदय), वायव्य (गुपित), उत्तर (गहिर), ईसान (साह), आर्ध (पद), ऊर्थ (तालु)। अंग ११ - अर्थांग (आचारांग), श्रुतांग (सूत्रकृतांग), सब्दांग (ज्ञातृकथांग), अस्थानांग (स्थानांग),वै सम अंग (समवायांग), विनय पद अंग (व्याख्या प्रज्ञप्ति अंग), समै अंग (उपासकाध्ययन), अनंतानंत अंग (अंत:कृत दशांग), नंत रंग (अनुत्तरोपपादक दशांग), प्रशम अंग (प्रश्न व्याकरणांग), श्रुत समै अंग (विपाक सूत्रांग)। पूर्व १४ - विर्जाम पूर्व (उत्पाद पूर्व), विश्व पूर्व (अग्रायणी पूर्व), अस्ति पूर्व (वीर्यानुवाद पूर्व), नास्ति पूर्व (अस्तिनास्ति प्रवाद पूर्व), प्रन्यान पूर्व (ज्ञान प्रवाद पूर्व), प्रत्याख्यान पूर्व (कर्म प्रवाद पूर्व), अनंत धर्म पूर्व (सत् प्रवाद पूर्व), विद्यानुवाद पूर्व (आत्म प्रवाद पूर्व), कल्याण पूर्व (प्रत्याख्यान प्रवाद पूर्व), मध्य पद पूर्व (विद्यानुवाद प्रवाद पूर्व),समय पूर्व (कल्याण प्रवाद पूर्व), मध्य पद अर्थ पूर्व (प्राणानुवाद पूर्व), क्रिया विशाल पूर्व (क्रिया विशाल पूर्व), लोक बिंदु पूर्व (लोक बिन्दुसार पूर्व)। तप १२- बाह्य तप ६- अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति परिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त सय्यासन, काय क्लेश । अंतरंग तप ६ - प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग, ध्यान। अववासीक ६ (६ आवश्यक) - अस्तित्व, वस्तुत्व, अप्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, अरूपत्व, चेतनत्व। सम्बग्दर्शन के भेद १०- न्यान, उपदेश, अर्थ, बीज, संक्षेप, सूत्र, व्यवहार, अवगाहन, प्रवचन केवलि, परम ।
SR No.009713
Book TitleAdhyatma Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
PublisherTaran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
Publication Year
Total Pages469
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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