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________________ ( ४२ ) उसका भी अलग से लक्षण करने की कोई आवश्यकता नहीं क्योकि उसमें एक उपमान ही तो काल्पनिक रहता है । इसके विषय में वे कहते हैं “तदेवमभिधावैचित्र्यप्रकाराणामेवंविधं वैश्वरूप्यम्, न पुनर्लक्षणभेदानाम् ।” (ङ) निदर्शना - निदर्शना भी उपमा में ही अन्तर्भूत है - 'निदर्शनमप्येवम्प्रायमेव' | (च) परिवृत्ति - परिवृत्ति को भी वे उपमा से अलग नहीं स्वीकार करना चाहते - " परिवृत्तिरप्यनेन न्यायेन पृथन् नास्तीति निरूप्यते ।" उनका कहना है यहाँ पर दो पदार्थों का विनिवर्तन होता है और दोनों ही मुख्य रूप से श्रभिधीयमान होते हैं । इसलिए कोई किसी का अलंकार नहीं हो सकता । हाँ, जब इनका रूपान्तरनिरोध होता है तो साम्य के सद्भाव में अवश्य ही उपमा अलंकार हो जाती है । - " रूपान्तरनिरोधेषु पुनः साम्यसद्भावे भवत्युपमितिरेषा चालङ्कृतिः समुचिता । ” ( पृ० ३८२ ) ८. विरोध और ९. समासोक्ति इस स्थल की पाण्डुलिपि अत्यन्त भ्रष्ट होने के कारण डॉ० डे कोई विशेष निर्देश नहीं कर सके । उनके निर्देशानुसार - विरोध श्लेष से अभिन्न होने के कारण उसी में अन्तर्भूत है उसकी अलग से अलंकारता कुन्तक की स्वीकार नहीं - ' श्लेषेणा सम्भिन्नत्वात् ।" समासोक्ति के विषय में उनका कहना है कि वह भी अन्य अलंकार के रूप में शोभाशून्य होने के कारण श्लेष से अभिन्न है - 'अलङ्कारान्तरत्वेन शोभाशून्यतया ।" १०. सहोक्ति अलङ्कार कुन्तक भामह के सहोक्त अलंकार के लक्षण और उदाहरण को प्रस्तुत कर उसका खण्डन करते हैं और कहते हैं कि भामह की यह सहोक्ति तो उपमा में ही अन्तर्भूत है क्योंकि वह चारुत्व साम्यसमन्वय के ही कारण है - भामह के उदाहरण के विषय में उनका कहना है - 'अत्र परस्परसाम्यसमन्वयो मनोहारि - निबन्धनमित्युपमैच' । कुन्तकाभिमत सहोक्ति लक्षण कई जहाँ पर प्रधान रूप से विवक्षित अर्थ की प्रतीति बराने के लिए वाक्यार्थों का एक साथ ही कथन किया जाता है, वहाँ सहोक्ति अलंकार होता
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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