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________________ ( ३६ ) और इस प्रकार से वह रसवदलद्वार समस्त अलंकारों का प्राणभूत होकर काव्यैकसर्वस्वता को प्राप्त करता है । २. प्रेयस् अलङ्कार प्रेयस् अलंकार का खण्डन करते हुए कुन्तक ने दण्डी के लक्षण को प्रस्तुत किया है । भामह ने तो लक्षण दिया ही नहीं केवल उदाहरण दिया है। इसके विषय में भी कुन्तक इसी तर्क को प्रस्तुत करते हैं कि यहां जो अलंकार्य है उसी को अलंकार माना गया है। अतः वर्ण्यमान के स्वरूप से भिन्न किसी अन्य वस्तु का बोध न करा सकने के कारण यह अलंकार नहीं हो सकता। और यदि अलंकार्य को ही अलंकार मानने का दुराग्रह करें तो अपने में ही क्रियाविरोध दूर नहीं किया जा सकता। किन्तु यदि कोई दण्डी और भामह के-'अद्य या मम गोविन्द' इत्यादि उदाहरणों के अतिरिक्त 'इन्द्रोलक्ष्मं त्रिपुरजयिनः' आदि जैसे उदाहरणों को उद्धृत करके यह कहे कि यहां प्रियतर आख्यान होने के कारण प्रेयस् अलंकार और निन्दामुखेन स्तुति होने के कारण 'व्याजस्तुति' अलंकार का संकर है। तो ठीक नहीं क्योंकि यहाँ प्रियतर कथन ही तो अलंकार्य है, क्योंकि यदि उसे भी अलंकार मान लिया जाय तो अलंकार्य रूप में कुछ शेष ही नहीं बचता। अतः ऐसे स्थलों पर भी प्रेयम् अलंकार्य ही रहेगा अलंकार __ नहीं। ३. ऊर्जस्वि अलङ्कार इसे भी कुन्तक ने अलंकार्य की कोटि में ही रखा है। भामह ने तो कोई लक्षण दिया नहीं केवल उदाहरण दिया है। कुन्तक दण्डिन् के 'अपहर्ताहमस्मीति' आदि उदाहरण को प्रस्तुत कर किस ढंग से आलोचना की यह कह सकना कठिन है। उद्भट के लक्षण 'अनौचित्यप्रवृत्तानां कामक्रोधादिकारणात् । भावानां रसानाञ्च बन्ध ऊर्जस्वि कथ्यते ॥ ___ की आलोचना में उन्होंने यह निर्देश किया कि यदि भाव अनौचित्य प्रवृत्त होगा तो वहाँ रसभा हो जायगा जैसा भानन्द ने कहा है-'अनौचित्यादृते नान्यद् रसभास्य कारणम्' । इसके बाद वे कहते हैं-'न रसवदायभिहितषणपात्रतामतिकामति, तदेतदुक्तमत्र योजनीयम् । (पृ. १७१) ४. उदात्त अलङ्कार . .. उदात्त को भी कुन्तक अलंकार्य ही मानते हैं । वे उद्भट के दोनों प्रकार के उदात्त की भालोचना करते हैं । उद्भट का लक्षण है:
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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