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________________ ( ४३ ) है। कहने का श्राशय यह है कि जिस बात को दूसरे वाक्य द्वारा कहना चाहिए उसे भी प्रस्तुत अर्थ की सिद्धि कराने के लिए रमणीयता के साथ उसी वाक्य द्वारा कह दिया जाता है। इसके उदाहरण रूप में वे अन्य उदाहरणों के साथ-साथ विक्रमोर्वशीय से __ "सर्वक्षितिभूतान्नाथ दृष्टा सर्वाङ्गसुन्दरी । रामा रम्ये वनोद्देशे मया विरहिता त्वया ॥' को प्रस्तुत कर व्याख्या करते हैं__"अत्र प्रधानभूतविप्रलम्भशृङ्गाररसपरिपोषणसिद्धये. वाक्याथद्वयमुपनिबद्धम् ।" इसके बाद कुन्तक ने स्वयं ही प्रश्न उठाकर इसकी श्लेष से भिन्नता सिद्ध किया है। ११. यथासङ्ख्य यथासंख्य में किसी भी प्रकार के उक्तिवैचित्र्य का अभाव होने से उसको अलंकारता कुन्तक को मान्य नहीं-'भणितिवैचित्र्यविरहान्न काचिदत्र कान्तिविद्यते। १२. आशी श्राशीः को वे अलंकार्य मानते हैं अलङ्कार नहीं क्योंकि उसमें आशंसनीय अर्थ ही मुख्य रूप से वर्णनीय होने के कारण अलङ्कार्य होता, जैसे कि प्रेयोऽलंकार में प्रियतराख्यान वर्णनीय होने कारण के अलङ्कार्य होता है। अतः जो दोष प्रेयस को अलंकारता मानने से आते हैं वे ही दोष आशीः को भी अलङ्कार मानने में आते हैं। १३. विशेषोक्ति कुन्तक विशेषोक्ति को भी अलंकार्य ही मानते हैं। इस विषय में वे भामह के स एकस्त्रीणि जयति जगन्ति कुसुमायुधः । .हरतापि तनुं यस्य शम्भुना न हृतं बलम् ॥ उदाहरण को उद्धृत कर आलोचना करते हैं कि इसमें समस्त लोकों में प्रसिद्ध विजय के उत्कर्षवाला कामदेव का स्वभाव ही तो वर्णित है अतः यह अलंकार्य है।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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