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________________ २५२ वक्रोक्तिजीवितम् ही ज्यादातर प्राण रूप में स्फुरित होता है इसका विवेचन उत्प्रेक्षा का निरूपण करते समय ही करेंगे । इसके 'स्तन एवं जंघाएं स्थूलता के अभिमान को व्यक्त कर रही हैं ।।। यहाँ कर्ता रूप स्तन एवं जवायें पृथुता की प्रगल्भता अर्थात् गुरुता की । निपुणता को उन्मुद्रित कर रहे अर्थात् व्यक्त कर रहे हैं । जिस प्रकार से कि कोई चेतन (प्राणी ) किसी रक्षा करने योग्य वस्तु को छिपाकर कुछ समय के लिए रखकर उसके प्रयोग के योग्य समय पर अपने आप उसे। उन्मुद्रित कर देता है अर्थात् प्रकट कर देता है। तो इसी प्रकार उसी प्रकार का कार्य करने की समानता के कारण स्तन एवं जङ्घाओं का (पृथुता के ) प्रकट करने का उपचार से प्रयोग किया गया है। तो कहने का तात्पर्य यह हैं कि जो ही ( पृयुता की प्रगल्भता ) बाल्यावस्था में आच्छन्न स्वरूप वाली होने से शक्तिरूप में स्थित थी इसी पृथुता की प्रगल्भता के पहले पहले जवानी आने के समय के अनुरूप व्यक्त होने को प्रतिपादित किया गया है। 'नेत्रों के विलासों का उद्यम साफ-साफ सरलता की निन्दा कर रहा । है'—यहाँ बाल्यकाल में समाहत सरलता को स्पष्ट ही त्योग कर के आँखों के विलासों के उद्भव किसी ( अनिर्वचनीय) नवयौवन के अनुरूप चेष्टा को ( अथवा शोभा को) आरोपित कर रहे हैं। जैसे कुछ प्राणी किसी। विषय में ( मान्यता) प्रधानताप्राप्त व्यवहार का परित्याग कर अपना इच्छानुकूल दूसरे व्यवहार को प्रतिष्ठित करते हैं। उसी प्रकार का कार्य करने के सादृश्य के कारण विलासवती के नेत्रों के विलासों के उद्यमों की सरलता को निन्दा करने का उपचार से प्रयोग किया गया है। तो इस प्रकार के उपचार से ये तीनों ही ( तरन्ति, उन्मुद्रयति तथा अपवदन्ते ) क्रियायें किसी (लोकोत्तर) बाँकपन को प्राप्त करा दिये गये हैं। इस श्लोक में दूसरे भी वक्रता के भेद पद-पद में सम्भव हो सकते हैं इसका विवेचन अन्य अवसरों पर किया जायगा। __ इदमपरं क्रियावेचिश्यवक्तायाः प्रकारान्तरम् -कर्मादिसंवृतिः। कर्मप्रभुतीनां कारकाणां संवृतिः संवरणम् , प्रस्तुतौचित्यानुसारेण सातिशयप्रतीतये समान्छाचाभिया । सा च क्रियावैचित्रकारित्वात् प्रकारत्वेनाभिधीयते। (५) यह 'कर्म आदि का संवरण' क्रियावचिद्रयवक्रता का अन्य (पाँचवाँ ) भेद है। कर्म इत्यादि कारकों को संवृत्ति अर्यात् छिपाने का अर्थ है वर्ग्यमान पदार्थ को उमा के अनुसार उसके अति शेष का
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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