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________________ द्वितीयोन्मेषः २५३ बोध कराने के लिए ( कर्मादि को ) छिपा करके कहना तथा यह कथन किया के वैचित्र्य को उत्पन्न करने के कारण उसके भेद रूप से कहा जाता है। कारणे कार्योपचाराद् यथा नेत्रान्तरे मधुरमर्पयतीव किचित् कर्णान्तिके कथयतीव किमप्यपूर्वम् । अन्तःसमुल्लिखति किंचिदिवायताक्ष्या रागालसे मनसि रम्यपदार्थलक्ष्मीः ॥ १२ ॥ कारण में कार्य का उपचार होने से ( कर्मादि का संवरण ) जैसे इस विशाल नयनों वाली (नायिका) की रमणीय वस्तुशोभा आँखों के अन्दर कुछ मीठा-मीठा भर सा देती है और कानों के पास कुछ अश्रुतपूर्व मीठी बातें बोल सी जाती है और प्रेम से अलसाये मन भीतर ही कुछ मधुर ( भाव ) उत्कीर्ण सा कर देती है ।। ९२ ।। अत्र तदनुभवैकगोचरत्वादनाख्येयत्वेन किमपि सातिशयं प्रतिपदं कर्म संपादयन्त्यः क्रियाः स्वात्मनि कमपि वक्रभावमुद्धावयन्ति । उपचारमनोज्ञाताप्यत्र विद्यते। यस्मादर्पणकथनोल्लेलनान्युपचारनिबन्धनान्येव चेतनपदार्थधर्मत्वात् । यथा च यहाँ केवल उसी के अनुभवगम्य होने के कारण अनिर्वचनीय होने से, प्रत्येक पद में किसी अत्यधिक उत्कर्षपूर्ण कर्म की पुष्टि करती हुई क्रियायें अपने भीतर किसी लोकोत्तर वक्रता को प्रकट करती हैं। साथ ही या उपचार के कारण होने वाली रमणीयता भी विद्यमान है, क्योंकि प्रदान करना, कहना, उल्लेख करना क्रियायें चेतन पदार्थ का धर्म होने के नाते ( सादृश्य के कारण ) उपचार से ही प्रयुक्त हुई हैं । तथा जैसे ( दूसरा उदाहरण) नृत्तारम्भाद्विरतरभसस्तिष्ठ तावन्मुहूर्त यावन्मौली इलथमचलतां भूषणं ते नयामि । इत्याख्याय प्रणयमधुरं कान्तया योज्यमाने चूडाचन्द्रे जयति सुखिनः कोऽपि शर्वस्य गर्व ॥ ३ ॥ वेग से विरत हो जाने वाले तुम थोड़ी देर तक नर्तन के उपक्रम से तब तक ठहर जाओ जब तक कि मैं तुम्हारे सिर पर के ढीले आभूषण को स्थिरता प्रदान कर दूं। (अपनी ) प्रियतमा (पार्वती द्वारा स्नेह की
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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