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________________ १९९ द्वितीयोन्मेषः ये राम हैं जो अपने पराक्रम-गुणों से लोकों में परम प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं ॥ ३० ॥ अत्र 'राम'-शब्देन सकलत्रिभुवनातिशायी रावणानुचरविस्मयास्पदं शौर्यातिशयः प्रतीयते। यहाँ पर 'राम' शब्द के द्वारा समस्त त्रिलोकी को अतिक्रमण कर जाने वाला, रावण के सेवक का विस्मयभूत पराक्रमातिशय प्रतीत होता है । एषा च रूढिवैचित्र्यवक्रता प्रतीयमानधर्मबाहुल्या बहुप्रकारा भियते । तच्च स्वयमेवोत्प्रेक्षणीयम् । यथा तथा इस 'रूढिवैचित्र्यवक्रता' के प्रतीयमान धर्मों के असंख्य होने के कारण अनेक भेद सम्भव हैं । उनको ( सहृदयों को ) स्वयं ही विचार कर लेना चाहिए । जैसे गुर्वर्थमों श्रुतपारदृश्वा रघोः सकाशावनवाप्य कामम् । गतो वदान्यान्तरमित्यवं मे मा भूत्परीवावनवावतारः ॥३१॥ ( रघुवंश महाकाव्य में-विश्वजित् यज्ञ में सर्वस्व वान कर देने के अनंतर, गुरुदक्षिणा के निमित्त द्रव्य याचना के लिए पधारे हुए, किंतु प्रथम स्वागत में ही मिट्टी के अर्घ्यपात्र को देख कर निराश हो किसी अन्य दाता के पास द्रव्यहेतु जाने के लिए उद्यत वरतंतु के शिष्य कौत्स से राजा रघु की यह उक्ति कि-) (समग्र ) शास्त्रों का पारङ्गत गुरुदक्षिणा (प्रदान करने ) के निमित्त याचना करने वाला ( स्नातक कौत्स दान देने में प्रसिद्ध राजा ) रघु के समीप से मनोवांछित ( वस्तु को) न पाकर दूसरे दानी के पास चला गया' ऐसा यह ( आज तक कभी न हुआ ) मेरा नवीन अपयश आविर्भूत न होवे। अतः आप जब तक मैं उसका प्रबंध करूं', दो-तीन दिन मेरी अग्नि बाला में ठहरें ) ॥ ३१॥ 'रघु'-शब्देनात्र त्रिभुवनातिशाय्योदार्यातिरेकः प्रतीयते । एतस्यां बतायामयमेव परमार्थो यत् सामान्यमात्रनिष्ठतामपाकृत्य कविविवक्षितविशेषप्रतिपादनसामर्थ्यलक्षणः शोभातिशयः समुल्लास्यते । संताशम्दानां नियतार्थनिष्ठत्वात् सामान्यविशेषभावो न कश्चित सम्भवतीति न बक्तव्यम् । यस्मात्तेषामप्यवस्थासहस्त्रसाधारणवृत्तेर्वाच्यस्य नियतदशाविशेषवृत्तिनिष्टता सत्कविविवक्षिता संभवत्येव, स्वरश्रुतिन्यायेन. लग्नाशकन्यायेन चेति ।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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