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________________ १९८ वक्रोक्तिजीवितम् धर्म के अध्यारोप की गर्भता ( रूप पहले भेद ) का उदाहरण हुआ। साथ ही कवि ने स्वयं राम के द्वारा ही उसे कहलाया है। अन्यो वक्ता यत्र तत्रोदाहरणं यथाप्राज्ञा शक्रशिखामणिप्रणयिनो शास्त्राणि चक्षुर्नवं भक्तिभूतपतौ पिनाकिनि पदं लङ्केति दिव्या पुरी। संभूतिर्दृहिणान्वये च तवहो नेदृग्वरो लभ्यते स्याच्चेदेष न रावणः क्व नु पुनः सर्वत्र सर्वे गुणाः ॥ २६ ॥ जहाँ ( कवि पदार्थ में उत्कर्ष अथवा अपकर्ष का आरोप कराने के लिए स्वयं रूढि शब्द द्वारा वाच्य पदार्थ को ही न उपनिबद्ध कर, उससे भिन्न दूसरे वक्ता ( को उपनिबद्ध करता है) उसका उदाहरण जैसे (बालरामायण नाटक में रावण के विषय में राजा जनक से शतानन्द की निम्न उक्ति कि जिस रावण की ) आज्ञा देवराज इन्द्र के मुकुट की मणियों से प्रणय करने वाली है (अर्थात् इन्द्र द्वारा शिरोधार्य है), शास्त्र ही (जिसकी) अभिनव दृष्टि है; पिनाक (धनुष ) को धारण करने वाले भूतनाथ ( भगवान् मसूर ) में ( जिसकी) भक्ति है, दिव्य लङ्का नगरी ( जिसकी) निवासस्थली है, ब्रह्मा के कुल में (जिसका ) जन्म हुआ है। अहो ! (ऐसे उत्कृष्ट गुणों से सम्पन्न ) ऐसा दूसरा वर ( संसार में ) कहाँ मिलता यदि यह ( रावयतीति रावण:-प्राणियों को पीड़ित करने वाला ) 'रावण' न होता (पर ऐसा होता कैसे-क्योंकि ) कहाँ सभी में सब गुण सम्भव होते हैं ॥ २९॥ 'रावण'-शब्देनात्र सकललोकप्रसिद्धदशाननदुविलासव्यतिरिक्तमभिबनविवेकसदाचारप्रभावसंभोगसुखसमृद्धिलक्षणायाः समस्तवरगुणसामग्रीसंपदस्तिरस्कारकारणं किमप्यनुपादेयतानिमित्तभूतमोपहत्यं प्रतीयते। यहाँ पर 'रावण' शब्द से सारे लोकों में प्रसिद्ध दशमुख के कुप्रपञ्च के अतिरिक्त सज्जनों के विवेक, सदाचार, प्रभाव और ऐहिक सुख की समृद्धि के स्वरूप वाली पति के सारे गुणों की समग्रता रूपी सम्पत्ति के तिरस्कार की हेतुरूप हेयता के निमित्तभूत अपमान की प्रतीति होती है । प्रत्रव विद्यमानगणातिशयाध्यारोपगत्वं यथारामोऽसौ भुवनेषु विक्रमगुणः प्राप्तः प्रसिद्धि पराम् ॥ ३० ॥ यहीं पर ( पदार्थ में विद्यमान ) गुण के आतिशय्य की आरोपगर्भता (का उदाहरण) जैसे
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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