SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०० वक्रोक्तिजीवितम् इस (रूढिवैचित्र्यवक्रता ) में यही तो तत्त्व है कि इगमें ( रूढि शब्द के द्वारा उसकी ) केवल सामान्यगत निष्पतियुक्तता का परित्याग कर कवि के अभिप्रेत विशेष ( पदार्थ ) का बोध कराने की क्षमता वाली रमणीयता का उत्कर्ष प्रतिपादित किया जाता है। संज्ञा शब्दों के ( किसी ) निश्चित अर्थ की ( ही ) प्रतीति कराने वाले होने के कारण उनमें कोई भी सामान्य और विशेष भाव हो ही नहीं सकता ऐसा कहना उचित नहीं, क्योंकि उनकी भी हजारों अवस्थाओं में समान रूप से पाई जाने वाली वति वाले वाच्य के एक अच्छे कवि द्वारा विवक्षित नियत अवस्थाविशेष में व्यापार की निष्ठता सम्भव होती ही है जैसे कि स्वरश्रुतिन्याय' में और 'लग्नांशुकन्याय' में । एवं रूढिवक्रतां विवेच्य क्रमप्राप्त समन्वयां पर्यायवक्रता विविनक्ति अभिधेयान्तरतमस्तस्यातिशयपोषकः । रम्यच्छायान्तरस्पर्शात्तदलकर्तुमीश्वरः ॥ १० ॥ स्वयं विशेषणेनापि स्वच्छायोत्कर्षपेशलः। असंभाव्याणपात्रत्वगर्भ यश्चामिधीयते ॥ ११ ॥ अलंकारोपसंस्कारमनोहारिनिबन्धनः पर्यायस्तेन वैचित्र्यं परा पर्यायवक्रता ॥ १२ ॥ ( १ ) ( जो पर्याय ) अभिधेय का अत्यन्त अन्तरङ्ग है, (२) उस (अभिधेय ) के अतिशय को पुष्ट करनेवाला है, (३) स्वयं ही अथवा अपने विशेषण के द्वारा ( जो) रमणीय दूसरी शोभा के स्पर्श से उस ( अभिधेय ) को अलंकृत करने में समर्थ है, (४) अपनी कांति के प्रकर्ष से रमणीय है, (५) तथा जो पर्याय सम्भावित न किए जा सकने वाले अर्थ का पात्र होने के अभिप्राय वाला कहा जाता है, एवं (६) अलङ्कारों के कारण उत्पन्न दूसरी शोभा से, अथवा अलङ्कारों की दूसरी शोभा को उत्पन्न करने से मनोहर रचना वाला पर्याय है, उसके कारण (जहाँ) विचित्रता होती है वह कोई प्रकृष्ट पर्याय की वक्रता होती है ॥ १०-१२॥ पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टः काव्यविषये पर्यायस्तने हेतुनायवैचित्र्यं विचित्रभावो विच्छित्तिविशेषः सा परा प्रकृष्टा काचिदेव पर्यायवक्रतेत्युच्यते । पर्यायप्रधानः शब्दः पर्यायोऽभिधीयते । तस्य चैतदेव पर्यायप्राधान्यं यत् स कदाचिद्विवक्षिते वस्तुनि बाचकतया
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy