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________________ ११५ वक्रोक्तिजीवितम् जिन्होंने संग्राम में ) बाणों के द्वारा ( राक्षसों का वधकर ) राक्षसों की पत्नियों की कपोलस्थली को ( उनके विधवा हो जाने के कारण सदा के लिए ) पत्र- रचना ( रूप प्रसाधन ) से निर्मुक्त कर दिया था ॥ ८६ ॥ अत्रापि वर्णविन्यासविच्छित्तिः पदसन्धानसम्पच सन्निवेश सौन्दर्यनिबन्धनस्फुटावभासैव । यहाँ पर वाक्य - संघटना के सौन्दर्य की कारणभूत वर्णों के विचित्र सन्निवेश से अन्य शोभा तथा पदों की सम्यक् योजना की शोभा स्पष्ट रूप से झलकती है । एवं लावण्यमभिधाय आभिजात्यमभिधन्ते । श्रुतिपेशल ताशालि सुस्पर्शमिव चेतसा । स्वभावमसृणच्छायमाभिजात्यं प्रचक्षते ॥ ३३ ॥ इस प्रकार सुकुमार मार्ग के माधुर्य, प्रसाद तथा लावण्य तीन गुणों का प्रतिपादन कर जब चौथे गुण आभिजात्य का कथन करते हैं सुनने में रमणीयता से सम्पन्न एवम् हृदय के साथ सुन्दर स्पर्श के समान स्वभावतः स्निग्ध कांति से युक्त वस्तु आभिजात्य नामक गुण कही जाती है ।। ३३ ।। एर्वविधं वस्तु आभिजात्यं प्रचक्षते आभिजात्याभिधानं गुणं वर्णयन्ति । श्रुतिः श्रवणेन्द्रियं तत्र पेशलता रामणीयकं तेन शालते श्लाघते यत्तथोक्तम् । सुस्पर्शमिव चेतसा मनसा सुस्पर्शमिव । सुखेन स्पृश्यत इवेत्यतिशयोक्तिरियम् । यस्मादुभयमपि स्पर्शयोग्यत्वे सति सौकुमार्यात् किमपि चेतसि स्पर्शसुखमर्पयतीव । यतः स्वभावमसृणच्छायम् अहार्यश्लक्ष्णकान्ति यत्तद् आभिजात्यं कथयन्तीत्यर्थः । यथा - इस प्रकार की वस्तु आभिजात्य कही जाती है अर्थात् उसे आभिजात्य नामक गुण कहते हैं। श्रुति अर्थात् श्रवणेन्द्रिय कर्ण वहाँ जो पेशलता अर्थात् सौन्दर्य होता है उससे जो शालित सुशोभित होता है वह हुआ तथोक्तश्रुति की रमणीयता से सुशोभित होनेवाला । चित्त के साथ सुस्पर्श की भाँति अर्थात् मन के साथ सुखदायी स्पर्श की तरह । सुखपूर्वक स्पशं किया जाता है जिसका उसके समान – यहाँ अतिशयोक्ति है। क्योंकि दोनों ही स्पर्श को योग्यता के विद्यमान रहने पर सुकुमारता के कारण किसी अपूर्व स्प शंसुख को हृदय में उत्पन्न करते हैं। क्योंकि जो स्वभाव से मसृण छाया वाला •
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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