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________________ प्रपमोन्मेषः क्रमप्राप्तत्वेन बन्धोऽधुना व्याख्यास्यते वाव्यवाचकसौभाग्यलावण्यपरिपोषकः । व्यापारशाली वाक्यस्य विन्यासो बन्ध उच्यते ॥ २२ ॥ ( इस प्रकार 'शब्दार्थों सहितो.....' (११७ ) इत्यादि काव्य-लक्षण में प्रयुक्त 'शब्दार्थों' 'सहितो' एवं 'वक्रकविव्यापार' पदों की व्याख्या कर चुकने के बाद ) क्रम प्राप्त होने से अब 'बन्ध' पद का व्याख्यान किया जा रहा है___ अर्थ और शब्द के ( आगे कहे जाने वाले ) सौभाग्य एवं लावण्य ( गुणों) को परिपुष्ट करनेवाली ( कवि ) व्यापार से शोभित होनेवाली वाक्य ( श्लोकादि ) की विशिष्ट संघटना को 'बन्ध' कहते हैं ।। २२ । विन्यासो विशिष्टं न्यसनं यः सन्निवेशः स एष व्यापारशाली बन्ध उच्यते । व्यापारोऽत्र प्रस्तुतकाव्यक्रियालक्षणः । तेन शालते श्लाघते यः स तथोक्तः । कस्य-वाक्यस्य श्लोकादेः । कीदृशःवाच्यवाचकसौभाग्यलावण्यपरिपोषकः वाच्यवाचकयोर्द्वयोरपि वाच्यस्याभिधेयस्य वाचकस्य च शब्दस्य वक्ष्यमाणं सौभाग्यलावण्यलक्षणं यद् गुणद्वयं तस्य परिपोषकः पुष्टतातिशयकारी सौमाग्यं प्रतिभासंरम्भफलभूतं चेतनचमत्कारित्वलक्षणम् , लावण्यं सन्निवेश. सौन्दर्यम् , तयोः परिपोषकः । यथा विन्यास अर्थात् विशिष्ट ढंग से वर्णों एवं पदों का न्यास रूप जो संघटना है वही काव्य-कर्म रूप व्यापार से शोभित होनेवाला 'बन्ध' कहा जाता है। व्यापार का मतलब यहां पर काव्य-क्रिया रूप है। उसके द्वारा जो 'शालते' अर्थात् प्रशंसित होता है वह हुआ व्यापारशाली। किसका ( विन्यास) वाक्य अर्थात् श्लोकादि का विन्यास । किस ढंग का (विन्यास)-वाक्य और वाचक के सीमाग्य तथा लावण्य का परिपुष्ट करने वाला। वाच्य और वाचक दोनों का भी बाच्य अर्थात् अर्थ, वाचक अर्थात् शब्द का आगे कहा जानेवाला सौभाग्य और लावण्य रूप जो गुणद्वय उसका परिपोषक अर्थात् पोषण के अतिशय को उत्पन्न करने वाला । सौभाग्य अर्थात् ( कवि ) प्रतिभा के संरम्भ का परिणामस्वरूप सहृदयहृदय को आनन्दित करने की योग्यता, लावण्य अर्थात् संघटना की सुन्दरता उन दोनों को परिपुष्ट करनेवाला ( वाक्य-विन्यास ) 'बन्ध' कहा जाता है)। जैसे
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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