SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वक्रोक्तिजीवितम् यथा च, तापसवत्सराजे कुसुमसुकुमारचेतसः सरसविनोदैकरसिकस्य नायकस्य चरितवर्णनमुपक्रान्तम् । वस्तुतस्तु व्यसनार्णवे निमज्जनिजो राजा तथाविधनयव्यवहारनिपुणैरमात्यैस्तैस्तैरुपायैडत्तारणीय इत्युपदिष्टम् । एतच्च स्वलक्षणव्याख्यानावसरे व्यक्ततामायास्यति । (इस प्रकार 'प्रकरण-वक्रता' का विवेचनकर अब 'प्रबन्धवक्रता' को विवेचित करते हैं )-प्रबन्ध में वक्रता का उदाहरण जैसे किसी महाकवि-विरचित रामकथा का वर्णन करनेवाले नाटक आदि में (पूर्व-विवेचित वर्ण्य-विन्यास-वक्रता, पदपूर्वार्द्ध वक्रता, प्रत्ययाश्रयवक्रता, वाक्य-वक्रता एवं प्रकरण-वक्रता रूप) पाँच प्रकार की वक्रताओं से युक्त सामग्री के समुदाय से सुन्दर सहृदयों के हृदयों को आकर्षित करने वाला महापुरुष के चरित्र का वर्णन आरम्भ में प्रतीत होता है। किन्तु वस्तुतः उसका पर्यवसान ‘राम की तरह व्यवहार करना चाहिए' ( में विधिरूप) 'रावण की तरह नहीं' ( में निषेधरूप ) इस प्रकार विधि तथा निषेधरूप धर्म के उपदेश में उस प्रबन्ध का पर्यवसान होता है। और जैसे ( उदाहरणस्वरूप) 'तापसवत्सराज' (नामक नाटक ) में रमपूर्ण विनोद के एकमात्र रसिक तथा पुष्प के सदृश सुकोमल हृदयवाले नायक ( वत्सराज उदयन) के चरित्र का वर्णन प्रारम्भ किया गया है, लेकिन वास्तव में विपत्ति के सागर में डूबते हुए अपने राजा का उस प्रकार के नीति एवं व्यवहार में दक्ष मन्त्रियों द्वारा उन-उन तथा वणित उपायों द्वारा उद्धार करना चाहिए, यह उपदेश दिया गया है। यह बात अपने लक्षण की व्याख्या करते समय अधिक स्पष्ट हो जायगी। टिप्पणी-( इस प्रकार अब तक राजानक कुन्तक ने कविव्यापार की वक्रता का विवेचन करते हुए ६ प्रकार की वक्रताओं (१) वयं विन्यासवक्रता (२) 'पदपूर्वार्द्ध-वक्रता' एवं उसके अन्तर्गत 'रूढिवैचित्र्य-वक्रता आदि आठ अवान्तर भेदों का तथा ( ३ ) प्रत्ययाश्रय-वक्रता तथा उसके अन्तर्गत संख्या, कारक एवं पुरुषवैचित्र्य-कृत वक्रता रूप तीन अवान्तर भेदों का ( ४ ) वाक्यवक्रता (५) प्रकरण-वक्रता तथा (६) प्रबन्धवक्रता का संक्षिप्त विवेचन किया।) एवं कविव्यापारवक्रत षट्कमुद्देशमात्रेण व्याख्यातम् । विस्तरेण तु स्वलक्षणावसरे ब्यास्यास्यते । इस प्रकार कवि-व्यापार की ६ वक्रताओं की नाम संकीर्तन मात्र से व्याख्या की गयी है। विस्तार के साथ उनका विवेचन अपना-अपना लक्षण करते समय किया जायगा ।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy