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________________ ६४ वक्रोक्तिजीवितम् दत्त्वा वामकरं नितम्बफलके लीलावलन्मध्यया प्रोत्तङ्गस्तन मंसचुम्बिचिबुकं कृत्वा तथा मां प्रति प्रान्तप्रोतन वेन्द्रनीलमणिमन्मुक्तावलीविभ्रमाः सासूयं प्रहिताः स्मरज्वरमुचो द्वित्राः कटाक्षच्छटाः ।। ७२ ।। विलास के साथ कमर को झुकाये हुए, उस ( मेरी प्रेयसी ) ने अपने वामहस्त को नितम्ब स्थलपर रखकर स्तन को खूब उभाड़कर, और ठोडी को कन्धे का स्पर्श कराकर मेरे प्रति असूया के साथ मदनज्वर को छोड़ने वाले किनारों पर लगी हुई नयी-नयी इन्द्रनीलमणियों से युक्त, मोतियों की माला के विलास से युक्त दो-तीन कटाक्ष फेंके ॥ ७२ ॥ समंप्रकविकौशल सम्पाद्यस्य अ चेतनचमत्कारित्वलक्षणस्य सौभाग्यस्य कियन्मात्रवर्णविन्यास विच्छित्तिविहितस्व पदसन्धानसम्पदुपार्जितस्य च लावण्यस्य परः परिपोषो विद्यते । यहाँ पर सहृदयहृदय को आनन्द देनेवाले, समग्र कवि की कुशलता से सम्पादित किये जानेवाले सौभाग्य गुण को, और केवल कुछ ही वर्णों की विशेष रचना के वैचित्र्य से उत्पन्न, पदों के संयोग की सम्पत्ति से उपार्जित होनेवाले लावण्य ( गुण ) को अत्यधिक परिपुष्ट किया गया है । एवं च स्वरूपमभिधाय तद्विदाह्लादकारित्वमभिधन्तेवाच्यवाचकवक्रोक्तित्रितयातिशयोत्तरम् । तद्विदाह्लादकारित्वं किमप्यामोदसुन्दरम् ॥ २३ ॥ इस प्रकार ( बन्ध ) के स्वरूप को बताकर अब उसकी काव्य-मर्मज्ञों के लिए आनन्द प्रदान करने की योग्यता को बताते हैं अर्थ, शब्द एवं वक्रोक्ति इन तीनों के उत्कर्ष से भिन्न ( अलौकिक उत्कर्षयुक्त) एवं किसी ( अनुभवकगम्य) आमोद ( रंजकता ) से रमणीय कोई अलौकिकतत्त्व ही काव्यमर्मज्ञों को आह्लादित करने की योग्यता है || २३ ॥ तद्विदाह्लादकारित्वं काव्यविदानन्द विधायित्वम् । कीदृशम् - वाच्यावाचकवक्रोक्तित्रितयातिशयोत्तरम् । वाच्यमभिधेयं वाचकं शब्दो वक्रोक्तिरलङ्करणम्, एतस्य त्रितयस्य योऽतिशयः कोऽप्युत्कर्षस्तस्मादुत्तरमतिरिक्तम् । स्वरूपेणातिशयेन च स्वरूपेणान्यत् किमपि तस्वान्तरमेतदतिशयेनैतस्मात्रितयादपि लोकत्तरमित्यर्थः । अन्यश्च कीदृशम् - किमप्यामोदसुन्दरम् | किमप्यव्यपदेश्यं सहृदयहृदय
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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